पूर्वजों के सम्मान का महापर्व है 'श्राद्ध'

पूर्वजों के सम्मान का महापर्व है 'श्राद्ध'

भोपाल [ महामीडिया ] श्राद्ध पर्व की महिमा ही तर्पण और अर्पण से है। वैसे श्राद्ध का सीधा-सा अर्थ है-श्रद्धा से किया वह काम जिसमें प्रसन्नता, सम्मान और ईमानदारी नजर आए। श्राद्ध को 'महालय' भी कहा जाता है। महालय शब्द का अर्थ भी घर में होने वाले उत्सव से ही है। इन दिनों अमूमन घर में शाकाहारी व्यंजन रोज ही बनाए जाते हैं और पितृ गणों की सेवा में रखे जाते हैं। देखा जाए तो भादौ की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तक चलने वाला यह पर्व अपने-अपने पितरों को मोक्ष दिलाने का पर्व है। जब वे पृथ्वी पर रहने वाले अपने बच्चों से इस बात की इच्छा रखते हैं कि उनके मोक्ष के लिए वे इस खास समय अवधि में कुछ करें। पितृ पक्ष से जुड़ी मान्यताएं के मुताबिक, कुशा घास से बनी अंगूठी को रिंग फ़िंगर में पहनकर पूजा-पाठ और पितरों से जुड़े कर्म करने के पीछे कई वजहें हैं:कुशा को पवित्र माना जाता है।  

  • जब गरुड़देव स्वर्ग से अमृत कलश लेकर आए थे, तो उन्होंने थोड़ी देर के लिए वह कलश कुशा पर रख दिया था. इस वजह से कुशा पवित्र हो गई।  मत्स्य पुराण के मुताबिक, जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया और धरती बनाई, तब उन्होंने अपने शरीर से पानी छोड़ा।  इस दौरान उनके शरीर से बाल धरती पर गिरे और कुशा के रूप में बदल गए।  
  •  कुशा से नकारात्मकता दूर होती है।  कुशा का इस्तेमाल औषधि के रूप में भी किया जाता है।  अथर्ववेद में कुशा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि कुशा क्रोध को नियंत्रित करने में मदद करता है।  

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