श्रावणी पूर्णिमा पर नया जनेऊ धारण करने की परंपरा

श्रावणी पूर्णिमा पर नया जनेऊ धारण करने की परंपरा

भोपाल [महामीडिया] कल सावन पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन है इसे श्रावणी उपाकर्म भी कहते हैं। वैसे तो ये भाई-बहन के पर्व के रूप में प्रसिद्ध है लेकिन इस पर्व से जुड़ी कई और परंपराएं भी प्रचलित हैं। जैसे इस दिन ब्राह्मण नई जनेऊ धारण करते हैं। शास्त्रों में मनुष्य जीवन के कुल सोलह संस्कार बताए गए हैं, इनमें जनेऊ धारण करना भी एक संस्कार है, इसे उपनयन संस्कार कहते हैं। जनेऊ का एक नाम यज्ञोपवीत भी है। जनेऊ का अर्थ है- जो यज्ञ और उपनयन से जुड़ा है। जनेऊ व्यक्ति को याद दिलाती है कि वह एक साधारण व्यक्ति नहीं है, बल्कि धर्म-कर्म, ज्ञान और आत्मशुद्धि के मार्ग पर चलने वाला ब्राह्मण है। मनुस्मृति, गृह्यसूत्र जैसे शास्त्रों में उपनयन और यज्ञोपवीत के बारे में बताया है। शास्त्र कहते हैं कि उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है, इसके बाद व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से जागृत होता है। पहला जन्म माता से होता है और दूसरा जन्म उपनयन संस्कार से होता है।जनेऊ तीन धागों से मिलकर बनी होती है। ये तीन धागे त्रिगुण सत्व, रजस और तमस के प्रतीक हैं। इन्हें त्रिकाल यानी भूत, वर्तमान और भविष्य से जोड़ा जाता है। जनेऊ के तीन धागे त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी प्रतीक माने जाते हैं। इनके अलावा जनेऊ को मनुष्य जीवन के तीन ऋणों से भी जोड़ा गया है। ये तीन ऋण हैं मातृ-पितृ ऋण, ऋषि, गुरु या आर्चाय ऋण (ज्ञान)। इन तीन धागों को धारण करने वाला ये स्वीकार करता है कि वह इन तीनों ऋणों से बंधा है और इन्हें निभाने की जिम्मेदारी स्वीकार करता है।

देव ऋण - यह ऋण ईश्वर, देवी-देवताओं, प्रकृति के तत्वों जैसे सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी, इंद्र आदि से संबंधित है। इस ऋण को चुकाने के लिए यज्ञ, हवन, पूजा और मंत्र-जप करने होते हैं। ईश्वर के प्रति श्रद्धा, सत्य और धर्म का पालन करना होता है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा करके ये ऋण चुकाया जाता है।

ऋषि ऋण - यह ऋण वेद, शास्त्र, उपनिषद, नीति और योग जैसे दिव्य ज्ञान को देने वाले ऋषियों-मुनियों और गुरु से संबंधित है। इस ऋण को चुकाने के लिए वेद, धर्मग्रंथों, उपनिषद आदि का अध्ययन और प्रचार किया जाता है। गुरु की सेवा और सम्मान करना होता है। शिक्षण, लेखन, उपदेश और स्वाध्याय से दूसरों को ज्ञान बांटकर ये ऋण चुकाते हैं।

पितृ ऋण - ये ऋण हमारे माता-पिता, दादा-परदादा और संपूर्ण वंश के प्रति होता है, जिन्होंने हमें जन्म दिया, लालन-पालन, संस्कार किए। कुल परंपरा दी। इस ऋण को चुकाने के लिए माता-पिता और घर के लोगों की सेवा, देखभाल और सम्मान करना होता है। संतान उत्पत्ति करके कुल की परंपरा को आगे बढ़ाकर ये ऋण चुकाया जाता है। श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण जैसी क्रियाएं पितरों का ऋण चुकाते हैं।

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