सुख-समृद्धि का प्रतीक है 'कजलियां' पर्व
भोपाल (महामीडिया) 'कजलियां' यानी रक्षाबंधन के ठीक अगले दिन पारंपरिक गीतों और एक-दूसरे से मिलने-मिलाने का एक त्योहार। इसे 'भुजरिया' पर्व भी कहा जाता है।राजधानी भोपाल में कजलियां पर्व आज हर्षोल्लास के साथ परम्परागत तरीके से मनाया जाएगा। लेकिन कोरोना के चलते शहर के प्रमुख सरोवरों में कजलियों के मेले नहीं लगेंगे।
यह पर्व कभी मध्य प्रदेश के बघेलखंड और बुंदेलखंड में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था, मगर आज आधुनिकता की दौड़ में और लोगों की व्यस्तता ने इस त्योहार को कुछ घरों तक ही समेट दिया है।
माना जाता है कि मैहर में विराजित मां शारदा देवी के वरदान से अमर हुए आल्हा-ऊदल की बहन से भी इस पर्व का गहरा संबंध है। आल्हा की मुंह बोली बहन चंदा के सुरक्षित बचने पर लोगों ने एक-दूसरे को हरित तृण देकर खुशियां मनायी थीं। हालांक यह पर्व भारत की कृषि आधारित परंपरा से जुड़ा है। इसमें बारिश के बाद खेतों में लहलहाती खरीफ की फसल से आनंदित किसान एक-दूसरे को हरित तृण यानी कजलियां भेंट करके सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। एक-दूसरे का सुख-दुख बांटकर जीवन की खुशहाली की कामना करते हैं।
गेहूं, जौ, बांस के बर्तन और खेत की मिट्टी इस त्यौहार में विशेष महत्व रखते हैं। महिलाएं नागपंचमी के दूसरे दिन खेत से मिट्टी लेकर आतीं और बांस के बर्तन में गेहूं या जौ बोती थीं, रक्षाबंधन तक इन्हें पानी दिया जाता, इनकी देखभाल की जाती, इसमें उगने वाले जौ या गेहूं के छोटे-छोटे पौधों को ही कजलियां कहा जाता है।
महिलाएं आज के दिन कजलियों को विसर्जन के लिए नदी, तालाब, कुंओं आदि पर ले जाती हैं। सब महिलायें मिलकर पारंपरिक गीत गाती हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियां कजलियां तोड़कर घर के पुरुषों के कानों पर लगातीं और घर के पुरुष शगुन के तौर पर लड़कियों को रुपये देते। इस पर्व में कजलियां लगाकर लोग एक-दूसरे के लिए कामना करते कि सब लोग कजलियां की तरह खुश और धन-धान्य से भरपूर रहे, इसलिए यह पर्व सुख और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। मगर अब इस त्योहार का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।