महर्षि ज्ञानः धर्ममय जीवन ही तप है
भोपाल (महामीडिया) अच्छा जीवन वह होता है जिसमें दुःख और सुख में संतुलन प्राप्त हो जाए। ऐसे जीवन के लिए ऐसे लक्ष्यों की आवश्यकता होती है जिनके माध्यम से इस संतुलन को बनाने के लिए आवश्यक तत्व मिलते रहें। महर्षि कहा करते थे- "प्रत्येक व्यक्ति के भीतर रचनात्मकता की अनन्त क्षमता होती है परंतु उस विशाल भंडार को आधुनिक शिक्षा प्रणालियां सक्रिय और सजग नहीं बना पातीं। मनुष्य की प्रतिभा उसकी चेतना की उस स्तिथि, अर्थात् मन की उस सूक्ष्म अवस्था में छिपी रहती है, जहां से प्रत्येक विचार का उदय होता है। संसार में जितनी भी खोजें हुई है, सफल व्यक्तियों की सफलता का गुप्त साधन यही चेतना है। यह वह महासागर है, जिसमें ज्ञान की समस्त धाराएं विलीन रहती हैं और चेतना के इस अत्यंत कोमल स्तर से सम्पूर्ण सृष्टि का उदय होता है।" संसार में रहकर मनुष्य धन की ही आशा करते हैं तथा सम्पूर्ण जीवन इसी के उपार्जन एवं संग्रह में व्यतीत कर देते हैं और मृत्यु के समय इसे यहीं छोड़कर परलोक सिधार जाते हैं अर्थात् खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ जाते हैं। धन से सांसारिक भोग तो प्राप्त किये जा सकते है किन्तु इससे अमृततत्व तो उपलब्ध नहीं हो सकता। चेतना का उच्चतम विकास ही अमृततत्व है। इसी से ब्रह्म की अनुभूति होती है और दुःखों का अन्त होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है। धन से इस परमानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती बल्कि धन तो इसमें और बाधक होता है। कर्म से धन, यश, मान, प्रतिष्ठा आदि तो अर्जित किया जा सकता है, परन्तु मुक्ति नहीं पाई जा सकती क्योंकि यह सभी कर्मों का फल होता है जिसे भोगना आवश्यक है। मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है। यह सर्वादित है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती और यह ज्ञान है, स्वयं की आत्मा का ज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान से ही ब्रह्म एवं आत्मा की एकता का बोध होता है और सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्ममय हो जाती है जिसके फलस्वरूप् मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन का उद्देश्य सिद्धियों की प्राप्ति नहीं, धर्ममय जीवन ही तप है जिससे चेतना जागृत होती है। तपस्या का उद्देश्य अहं का परिष्कार और परमात्मा के समक्ष व्यक्ति का समर्पण है। तपस्या वही फलीभूत होती है, जो अहंकार रहित होकर की जाए। मन के कारण ही अहंकार एवं वासना का उदय होता है जिससे अज्ञानी के सभी कर्मबंधन बनते हैं जिनकी मुक्ति लिये आध्यात्म के अतिरिक्त अन्य कोई विधि नहीं है। अध्यात्म धर्म का मार्ग निर्देशक है जिसके ज्ञान के बिना धर्म अन्धविश्वास एवं पाखण्ड मात्र रह जाता है तथा वह अपने मार्ग से ही भटक जाता है। धर्म जीवात्मा की आध्यात्मिक उपलब्धि की विधि है। बिना आध्यात्मिक दिशा निर्देशक के धर्म पर चलने वाला बिना कप्तान के जहाज को समुद्र में छोड़ देने के समान है जिससे वह कभी अपने गन्तव्य तक नहीं पहुंच सकता। धर्म वह विद्या है जिससे मनुष्य इहलौकिक तथा पारलौकिक जीवन को सुखी बनाकर स्वचेतना का विकास करते हुए अन्त में उस ईश्वरीय चेतना से संयुक्त हो जाता है जो उसकी परमगति है। धर्म इसी परमगति को प्राप्त करने की विधि है। अध्यात्म विज्ञान है तथा धर्म उसकी तकनीक है। प्रकृति के गुणों का नाम ही धर्म है तथा इन्हीं गुणों (धर्मों) के आधार पर इसकी समस्त क्रियाएं संचालित होती हैं। अध्यात्म ज्ञान पक्ष है तथा धर्म उसका आचरण एवं क्रिया पक्ष है। धर्म का आचरण करता हुआ ही मुनष्य आध्यात्मिक ज्ञान को उपलब्ध होता है। इसीलिए यह जीवात्मा का सर्वोपरि विज्ञान है जिस पर चलकर जीवात्मा अपनी उन्नति करता चला जाता है। धर्म के बिना उसकी उन्नति नहीं होती। अतः 'भावातीत ध्यान' का नियमित अभ्यास के माध्यम से आपके जीवन को धर्ममय बनाता है और धर्ममय जीवन का 'तप' ही फलीभूत होता है।
-ब्रह्मचारी गिरीश