बाह्य इन्द्रियों का संयम, भावातीत ध्यान से संभव
भोपाल (महामीडिया) भगवान को प्रसन्न करने के लिए श्रीमद्भागवत में तीस लक्षण बताए गए हैं। इस श्रृंखला में अब तक सत्य, दया, तपस्या, शोच, तितिक्षा तथा आत्मनिरीक्षण पर चर्चा कर चुके हैं। आज का विषय है बाह्य इन्द्रियों का संयम। समाज में व्याप्त नकारात्मकता व अवगुणों की आलोचना ने अनेक महत्वपूर्ण प्रतिभाओं को अपना शिकार बनाया है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आलोचना के गुरूत्वाकर्षण को ठीक से समझ नहीं पाये, क्योंकि जब कभी आप कुछ कार्य करने का प्रयास करेंगे तो आपके प्रति दुर्भावना रखने वाले सभी साथी या ईर्ष्या प्रवृत्ति के व्यक्ति आलोचना उपहास के गुरूत्वकर्षण से बाहर निकलकर आत्मविश्वास व सत्य अपने उद्देश्य में सफल भी हो जाते हैं, किंतु जो आलोचना उपहास के गुरूत्वाकर्षण से बाहर निकलकर आत्मविश्वास व सत्य को साथ लेता है वह सकारात्मकता का वातावरण निमित करता है। पूर्ण आत्मविश्वास को बनाये रखते हुए अपने सद्प्रयासों से जीवन में होने वाले परिवर्तनों का डटकर सामना करता है। उसे अपने पर हावी नहीं होने देता। महर्षि वशिष्ठ ने कहा था कि जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने लिए रेशम का कोया बनाता है, उसी प्रकार मन भी अपनी आवश्यकता के अनुसार शरीर का गठन करता है। ज्ञानियों का कहना है कि मन ही मनुष्य और मुक्ति का कारण है। विष और अमृत-दानों ही विचार नामक पदार्थ से उत्पन्न होते हैं। अनेक लोग जाने या अनजाने ही विष पैदा कर लेते हैं। तथाकथित बुद्धिमान भी इस मूर्खता में फंस जाते हैं। यदि हम मन के स्वभाव तथा उसकी कार्य-प्रणाली को समझ लें, तो हम विष की जगह अमृत उत्पन्न कर सकते हैं। मन क्या है? परिभाषिक जटिलताओं में न जाकर हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि मन एक ऐसी शक्ति है, जिसमें असंख्य विचार, भावनाएं, कल्पनाएं और संकल्प आदि, संक्षेप में कहें तो इच्छा, क्रिया और ज्ञान, निहित रहते हैं। यह एक सूक्ष्म और जटिल शक्ति है, जो हमारे व्यक्तित्व को आकार देती है। इस शक्ति की मदद से हम अपने भाग्य को रूपायिक करते हैं। हमारे सारे कर्म तथा उपलब्धियां मन में निहित भावनाओं, विचारों और कल्पनाओं के ही परिणाम हैं। एक प्रसिद्ध विचारक कहते हैं, "यदि तुम एक माह तक प्रतिदिन पांच बार अपने विचारों का परीक्षण करो, तो पता चलेगा कि तुम किस प्रकार अपने भविष्य का गठन कर चुके हो। यदि तुम अपने कुछ विचारों को पसन्द नहीं करते, तो श्रेष्ठ होगा कि आज से ही उन विचारों तथा भावनाओं में परिवर्तन लाना आरम्भ कर दो।" अतः हमें अपने विचारों की दिशा में परिवर्तन लाने का प्रयास करना चाहिए। हमें अपने सभी विचारों और प्रयासों को जीवन के सम्मुख स्थापित उच्च आदर्शों के रूपायन में लगा देना चाहिए। आजकल कम्प्यूटर अत्यन्त लोकप्रिय हो रहे हैं। हमारा मन भी प्रकृति का एक अद्भुत उपहार है और यह कम्प्यूटर से भी अधिक उपयोगी है। यदि हम मन में स्वस्थ एवं उदात्त विचारों तथा भावों को भरते रहें, तो इसके फलस्वरूप हमें प्रसन्नता, शान्ति और सन्तोष की प्राप्ति हो सकती है। लोग इस ओर अधिक ध्यान नहीं देते हैं। हमें ब्रह्मण्ड में एक व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जिसे वेदों में 'ऋत' कहा गया है। ब्रह्मण्ड की सारी चीजों को यह 'ऋत' ही नियंत्रित करता है। सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-सभी आकाश में घूम रहे हैं। दिन और रात तथा विभिन्न मौसम आते-जाते रहते हैं। इन सबके पीछे एक सूक्ष्म व्यवस्था है। यह सुव्यवस्था केवल बाह्य जगत में ही नहीं है, हम इसे अन्तर्गत में भी पाते हैं। दिल की धड़कन, श्वसन, रक्त संचार, निद्रा तथा जागृति-सभी एक सुसंगत प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं। एक उच्चतर नियम भी है, जो मनुष्य के सुख और दुःख को नियंत्रित करता है। हर सफलता के पीछे अनुशासन और व्यवस्था होती है। हमारा जीवन अनुशासित तथा व्यवस्थित रूप से संचालित होना चाहिए। मानव-मन रूपी प्रकृति-प्रदत्त इस कम्प्यूटर को अधिक उपयोगी बनाने के लिए इसमें निष्पक्ष-निरीक्षण, निःस्वार्थ-दृष्टिकोण, लक्ष्योन्मुख-प्रयास और आनन्द के भाव भर देने चाहिए। इसमें आलस्य, लापरवाही, एकाग्रता का अभाव, क्रोध और पूर्वाग्रहग्रस्त विचारों को भरने से यह बेकार हो जाता है। अतः मन में भरे जाने वाले विचारों तथा भावों के बारे में हमें बहुत सावधान रहना चाहिए। मन किसी रोग को पैदा कर सकता है या उसे ठीक भी कर सकता है। धैर्य, प्रेम, सहानुभूति, उदारता, निःस्वार्थता आदि सकारात्मक गुण मानव-देह रूपी इस यंत्र के सभी अंगों को सुचारू, स्वस्थ तथा सुखद रूप से चलाते हैं। पर नकारात्मक विचारों से भय, चिन्ता, क्रोध, ईष्या, निराशा और स्वार्थपरता का जन्म होता है, जो पूरे शरीर को प्रभावित करके उसे रोगी कर देते हैं। प्रसन्नता, शान्ति, साहस, आत्मविश्वास, संकल्प शक्ति आदि सकारात्मक मानसिक अवस्थाएं शरीर को स्वस्थ रखने में किसी भी टॉनिक से अधिक प्रभावकारी हैं और भावातीत ध्यान के प्रतिदिन अभ्यास से आपको बाह्य इन्द्रियों को संयमित करने की शक्ति का आभास होगा।
-ब्रह्मचारी गिरीश