समय की अपनी गति है और हमारी गति। अपने स्वप्नों और लक्ष्यों को प्राप्त करने का भी प्रयास करना हो, किसी आदत को छोड़ना हो, अवसाद व व्याकुलता से पार पाना हो, हममें से किसी के लिए ऐसा करना चुनौतीपूर्ण होता है। हमारे अंदर के कुछ भय, हमारी सीमाएं, कड़वे अनुभव समय-समय पर बाहर आ जाते हैं। यह अच्छी बात भी है, इससे हमें उनसे निकलने में सहायता मिलती है। हम अपने भीतर के सच को देख पाते हैं। अपनी सहज आत्मिक ऊर्जा के प्रवाह का आनंद ले पाते हैं। हम क्या बन सकते हैं, हमारे पास क्या हैं? हमारे अनुभव कैसे हैं? हम क्या कर रहे हैं? और हम क्या करते हैं? आदि अपने बारे में सही ढंग से समझने के लिए हमें आरामदायक क्षेत्र अर्थात् सुरक्षित घेरे को छोड़ना पड़ता है। अधिकतर लोग अपने घेरे से बाहर नहीं निकलना चाहते। यह सरल भी होता है, क्योंकि हम प्रत्येक वस्तु से परिचित होते हैं। पर क्या ऐसा सच में होता है? क्या हम भायभीत होते हैं कि दूसरे क्या कहेंगे? हां, हमें असफल होने का भय भयभीत करता है। यहां तक कि कुछ लोगों में सफल होने का भय भी होता है। कई बार, हम स्वयं को श्रेष्ठ जीवन जीने के योग्य ही नहीं समझते। किंतु आपको इस जाल में नहीं फंसना है। जितना आप स्वयं को समझते हैं, उससे कहीं अधिक सुदृढ़ हैं। वास्तव में, हम अपनी क्षमताओं को जानते ही नहीं। हम अपने मन और भावों की परतंत्रता से स्वतंत्र होने के लिए तैयार हो जाएं, तो बहुत कुछ नया सीख सकते हैं। अपनी अधिकतम क्षमताओं तक पहुंच सकते हैं। हम चाहते हैं कि यह सब सरलता से प्राप्त हो जावे। वैसे यह भी हो सकता है, अगर हम इसे खेल मान लें। यहां हम हारने के बाद, अगले दिन फिर खेल खेलने के लिए तैयार हो जाते हैं। पर, वास्तविक जीवन
में अगर कोई व्यतीत अनुभव ऐसा है, जो अच्छा नहीं रहा हो तो हम आगे करने से बचने लगते हैं। पैसा, प्रेम, सफलता और लक्ष्य ऐसा प्रत्येक क्षेत्र में होता है। इसमें अवचेतन मन की भी भूमिका होती है। हम कैसे सम्मिलित हो सकते हैं, यदि हम एक ही प्रकार की चीजें बार-बार करते रहें, बिना यह देखें कि जिस भूमि के ऊपर हम खड़े हैं, वह कैसी है? हम कैसे आत्मिक प्रेम का अनुभव कर सकते हैं, अगर हम दु:ख, दर्द और भय से भरे रहते हैं? इसी कारण किसी के निकट भी नहीं जा पाते। जो, हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण संबंध है, हमारा स्वयं के साथ का संबंध। यह दैवीय सत्ता के लिए हमारे प्रेम से जुड़ा है। फिर से, किसी से दु:ख न मिल जाए, इससे बचने के लिए अगर हम सबसे दूर जाते रहेंगे तो किसी के निकट नहीं हो सकेंगे। हमें उन सब लोगों को
धन्यवाद करना चाहिए, जिसके कारण जाने-अनजाने में यह जान सके कि अंतत: हमारे अंदर क्या चल रहा है। भीतर ऐसी कौन-सी चीजें हैं, जिन्हें प्रेम और हीलिंग की आवश्यकता है। सामान्यत: हमें पता ही नहीं कि कौन-सी बात किसे कठिनाई में डाल सकती है। ऐसे में सबको प्रसन्न करने का सदैव सही बात कहने के प्रयास में हम नष्ट होने लगते हैं। स्वयं को समय दें- क्या आप स्वयं को अटका हुआ, फंसा हुआ अनुभव कर रहे हैं? क्या आप लत, अवसाद, बेचैनी, भय से घिरे हैं? हां, तो हम सभी ऐसी ही स्थितियों से गुजर चूके हैं। कितनी ही बार हमारी अपनी राय, भय और गुजरे समय के दर्द में हमें अटकाए रखती हैं। अगर यही आपके साथ हो रहा है, तो कुछ है, जो आप कर सकते हैं। अपने उस कमजोर भाग के साथ स्नेह से समझाया करें। उसे
सुनें। उसे बताने दें कि आपके अंदर क्या चल रहा है और उससे पूछें कि सुरक्षित, शांत और प्रेम अनुभव करने के लिए आपके तन और मन को किस वस्तु की आवश्यकता है। किंतु इसके लिए आपको अपनी भावनाओं को अनुभव करना होगा। आपको स्वयं के साथ सत्यवान रहना होगा। यह देखना होगा कि आप अपने शरीर और स्वास्थ्य की देखभाल कैसे कर रहे हैं। आपको अपने भीतर असहज करने वाली बातों का सामना करने का उत्साह उत्पन्न करना होगा और कुछ नया करना होगा। सीधी बात है, अगर आपका कोई लक्ष्य है, कोई इच्छा है, तो इससे आपके भीतर कुछ कर गुजरने की आग उत्पन्न करनी होगी। यह आपका भीतरी रूप है, जो आपको बता रहा है कि यह करना आपके लिए सही है। यह आवाज, यह भी कह रही है कि अब आप उस कठिनाई से बाहर निकलने के लिए तैयार हैं, जिसमें आपने स्वयं को आगे बढ़ा दिया था। इसी से आप अपने जीवन को भरपूर जीन के लिए स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करेंगे। यहां यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हीलिंग तब होती है, जब हम इसके लिए तैयार होते हैं। यह स्वयं को मजबूर करने या ठीक होने के लिए इधरउ धर भटकने की बात नहीं हैं। सहज ही सही, समय पर आपको संकेत भी मिलने लगते हैं। बस हमें स्वयं को समय देने की आवश्यकता होती है। किंतु हम स्वयं की शीघ्र उन्नति के लिए बेचैन हो उठते हैं। कई बार हम पीड़ा को संपूर्ण रूप से संभालने के लिए तैयार नहीं होते। धीरे-धीरे, एक-एक पर्त के उतरने के साथ ही हम
स्वतंत्र होते हैं, यही सहज प्रवाह रूका हुआ है। हमारा एक भाग समय के साथ ही कहीं जम गया है, थम गया है और हम, निरंतर गुजरे समय से घायल हुए ही बर्ताव करते जा रहे हैं। इस कारण हमारे आगे जो है, जो हम प्राप्त कर सकते हैं, वह करने से रुक जाते हैं। अपने आने वाले समय से दूर हो जाते हैं। अंदर के इस घाव पर अपने स्ने का छिड़काव करें। ऐसा करके हम अपने लिए अधिक मजबूत व श्रेष्ठ संसार बना सकेंगे, जहां हम अधिक स्वतंत्र और आनंदित अनुभव करेंगे। हमारे जीवन में एक मार्गदर्शक की आवश्यकता सदैव बनी रहती है जो हमारे निर्णयों में सहयोग करे तो वह मार्गदर्शक है। भावातीत ध्यान योग शैली का नियमित अभ्यास जो हमारी चेतना को जागृत कर हमारे लिए जीवन आनंद का मार्ग प्रशस्त करे।
चलते जाना है
अन्य संपादकीय
चेतना की प्रेरणा: भावातीत ध्यान [ संपादकीय ]
भोपाल [ महामीडिया] भावातीत ध्यान एक तकनीक है, विद्या है, योगक्रिया है। आत्मानुशासन की एक युक्ति है जिसका उद्देश्य है एकाग्रता, तनावहीनता, मानसिक स्थिरता व संतुलन, धैर्य और सहनशक्ति प्राप्त करना। ध्यान अपने अंतर में ही रमण करने का, अपनी अंतश्चेतना को विकसित करने का, बाहरी विकारों से मुक्त होकर मन की निर्मलता प्राप्त करने का एक उपक्रम है। ध्यान क्रिया से इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति सचमुच सुगम होती है। इस दृष्टि से इस विद्या की उपादेयता स्वयंसिद्ध है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
हमारे ऋषि मुनियों ने भारतीय वैदिक वांङ्गमय में अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है जिससे हम जीवन के महत्व व उद्देश्य समझकर अपने जीवन को आनन्दित कर सकते है। कलियुग में आनन्द की कल्पना कार्यसिद्धि तक ही सीमित है किंतु आनन्द तो असीमित है। हमारे मन की प्रवृत्ति के अनुसार ही हम आनन्द का अनुभव कर पाते हैं जैसे- मिष्ठान प्रिय मनुष्य मीठा खाकर आनन्दित हो उठता है। संगीत ज्ञाता मधुर संगीत सुनकर आनन्दित होता है। प्रकृति प्रेमी प्राकृतिक सौन्दर्य को देख कर आनन्दित होता है किंतु यह सब क्षणिक आनन्द है क्योंकि सभी का आनंद परिस्थितियों पर निर्भर है। सच्चा आनन्दित व्यक्ति वह है जिसके मन की प्रकृति ही आनन्दित रहती है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बहुत भूखा रहने वाले का, न बहुत सोने वाले का और न बहुत जागने वाले का सिद्ध होता है। वास्तव में आनंद और शांति देने वाला यह योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, जीवन-कर्म में उचित प्रकार से रत रहने वाले तथा यथायोग्य (आवश्यकतानुसार) सोने-जागने वालों को ही सिद्ध (सफल) होता है। वर्तमान समय में जीवन के लक्ष्य के चयन में ही सम्पूर्ण जीवन समाप्त हो जाता है और अन्त में समझ आता है कि''न माया मिली न राम।'' हमारे ऋषि मुनियों ने भारतीय वैदिक वांङ्गमय में अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है जिससे हम जीवन के महत्व व उद्देश्य समझकर अपने जीवन को आनन्दित कर सकते है। कलियुग में आनन्द की कल्पना कार्यसिद्धि तक ही सीमित है किंतु आनन्द तो असीमित है। हमारे मन की प्रवृत्ति के अनुसार ही हम आनन्द का अनुभव कर पाते हैं जैसे- मिष्ठान प्रिय मनुष्य मीठा खाकर आनन्दित हो उठता है। संगीत ज्ञाता मधुर संगीत सुनकर आनन्दित होता है। प्रकृति प्रेमी प्राकृतिक सौन्दर्य को देख कर आनन्दित होता है किंतु यह सब क्षणिक आनन्द है क्योंकि सभी का आनंद परिस्थितियों पर निर्भर है। सच्चा आनन्दित व्यक्ति वह है जिसके मन की प्रकृति ही आनन्दित रहती है। अवसाद का स्थान न हो और ज्ञानी पुरुष कभी भी अवसाद ग्रस्त नहीं होते जैसे भगवान आदि शंकराचार्य जी की जब विद्वान मंडन मिश्र जी से परिचर्चा हुई तो मंडन मिश्र पराजित हुए क्योंकि भगवान आदि शंकराचार्य जी तो ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे अत: उनका मन सदैव आनन्दित रहता था। समस्त सृष्टि का आधार विशुद्ध चेतना है जिसके स्पन्दन ही समस्त सृष्टि एवं आकाशीय पिण्डों के रूप में प्रकट हुए हैं। मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक होती है। जब तक 'ब्रह्म' कि अनुभूति नहीं हो पाती, तब तक इंद्रियाँ अनुभव करती रहती हैं। मगर जब अनुभव करने वाला अपने अस्तित्व को भूल जाता है, तब चेतना की उस अवस्था में ब्रह्म की अनुभूति होती है। चेतना की इस "भावातीत अवस्था" की प्राप्ति शब्दों (मंत्रों) की सहजावस्था में मानसिक आवृत्ति से ही की जाती है। इसमें चेतना के कई स्तरों की चर्चा की जाती है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के बाद की चेतना की अवस्था भावातीत चेतना और इसके आगे पाँचवीं अवस्था तुरीयातीत चेतना की है। इस प्रकार साधना की इस सामान्य प्रक्रिया के द्वारा ब्रह्मांडी चेतना तक पहुँचा जा सकता है। भावातीत ध्यान करने वाले साधकों पर विदेशों में अनेक वैज्ञानिक प्रयोग भी किए जाते रहे हैं। परमपूज्य महेश योगी जी सदैव कहते थे कि जीवन आनन्द है, क्योंकि यदि हमारे मन की प्रवृत्ति आनन्दित हो जावे तब हम विषम परिस्थितियों में डरेंगे नहीं, घबरायेंगे नहीं और हमारा जीवन भी आनन्दित हो जाएगा। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने मन की प्रवृत्ति को आनन्दमय करने की युक्ति हम सभी को दी है "भावातीत-ध्यान-योग" के रूप में, अत: प्रतिदिन 15 से 20 मिनट प्रात: व संध्या नियमित भावातीत ध्यान योग का अभ्यास आपके मन को आनन्द से भर देगा और हमारे चारों ओर आनन्द की उपस्थिति, वैश्विक अशान्ति को मिटा कर पृथ्वी पर स्वर्ग के निर्माण की परिकल्पना को साकार कर देगी।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
[ ब्रह्मचारी गिरीश जी ]
- 2023-07-07
उपयोग या उपभोग ( संपादकीय )
भोपाल [ महामीडिया] प्रतिदिन का सूर्य एक नवीन ऊर्जा के साथ अवतरित होता है, हमें भी अपना प्रत्येक दिन एक नए संकल्प नई चेतना के साथ जीना आना चाहिए । भगवान ने जीवन का प्रत्येक क्षण हमें नवसृजन, अभिनव चिंतन के लिए दिया है। प्रत्येक दिन हर रूप में नया है ।उसे न पहले जिया गया है और न ही वह पूर्व-अनुभूत है। किंतु दुर्भाग्य से अधिकतर लोगों का अधिकांश जीवन पर निंदा, षड्यंत्र, चापलूसी करने और दूसरों के लिए खाई खोदने में निकल जाता है। किसी को फँसाने की धुन में वे अपना दुर्लभ समय नष्ट करते रहते हैं किंतु वे मूढ़ हैं! भूल जाते हैं कि उनके सारे कृत्य ईश्वर दृष्टिगत हैं और दूसरों के लिए खोदी गई खाई में उन्हें स्वयं गिरना है। जो अभिशप्त हैं उनसे अमृत की अपेक्षा कैसी । चेतना वैज्ञानिक विश्व-विख्यात परम पूज्य महर्षि महेशयोगी जी ने जीवन के प्रत्येक दिन के प्रत्येक क्षण को उपयुक्त दिशा में उठने वाले कदम की शुभ घड़ी कहा है।आत्म-चेतना का यह कदम प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन एक नए उत्साह के साथ उठाना चाहिए। वह ऐसे कदमों को चेतना का स्तर ऊँचा उठाने वाला मानते हैं और सभी से यह अपेक्षा करते हैं कि मानव-कल्याण के लिए इस प्रकार के प्रयास किए जाने चाहिए।यह तभी संभव है जब हम अपने जीवन के प्रत्येक दिन को प्रभु का उपहार मानकर उसे अविस्मरणीय बनाने का न मात्र हित चिंतन करें साथ ही व्यावहारिक रूप में अपने आचरण में ढालने की चेष्टा करें ।हमारी बड़ी दुर्बलता यही है कि हम दूसरों को जितनी सरलता से देखते हैं उतनी सरलता से स्वयं को नहीं जान पाते जबकि स्वयं पर शासन करना सबसे बड़ा आत्मज्ञान है।मनुष्य एक मननशील प्राणी है इसमें गंभीचिंतन और विचार करने की क्षमता होती है, किंतु सच्चाई यही है कि मनुष्य का जीवन प्राय ऊहापोह और सत्य-असत्य की टकराहटों के बीच बीतता है ।क्या करना है और क्या नहीं करना यह निर्णय सरल नहीं होता ।इसी कारण उसके जीवन में अनेक दोहरे मानदंड बन जाते हैं। मगर उसके जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं जो या तो उसेकमजोर करती हैं या उद्धृत बना देती हैं। इच्छापूर्ति को अपने अधिकार का विषय समझ बैठता है। भारत का वैदिक साहित्य प्राय वर्षों तक आत्मज्ञान और आत्मविस्तार की कथाओं का इतिहास है। स्वर्ग भी मनुष्य की उच्चतम कामनाओं का उदाहरण है। संसार के प्राय सभी धर्मों ने अपने-अपने ढंग से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के मार्र्ग निकाले हैं इहलोक के साथ-साथ परलोक में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। धरती पर साम्राज्यवाद का विस्तार भी इसी का उदाहरण है।प्राय दूसरों पर शासन करने की इच्छा खाद-पानी के समान हमारी साम्राज्यवादीधारणाओं को प्रबल करती है।महर्षि कहते थे कि दूसरों पर शासन करने के बदले स्वयं पर शासन करना सबसे बड़ा आत्मज्ञान है। यही आत्म-प्रज्ञा आत्मानुशासन है। हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि हम दूसरों को जितनी सरलता से देखते और परखते हैं उतनी सरलता से स्वयं को नहीं जान पाते। हम प्राय अपने बारे में बहुत कम सोचते हैं जबकि भारतीय चिंतन परंपरा में यह बात ठोक-बजाकर कही गई है कि निपुण व्यक्ति भी अपने कंधे पर नहीं चढ़ सकता। इसलिए ज्ञान की तीसरी आँख अधिकार के साथ कर्त्तव्य का भी ध्यान दिलाती है। कर्त्तव्य-बोध से रहित अधिकार एक शोषक की दुर्विनीत आकांक्षा भर बनकर रह जाता है।मन की नमनीयता ही उचित अधिकार का बोध करा सकती है और हमारी अन्तर्दृष्टि को तेज करने एक सरल उपाय है। महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित भावातीत ध्यान-योग का नियमित प्रात एवं संध्या 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको स्वयं को खोजने व समझने के आपके प्रयास में आपका सहखोजकर्त्ता व मार्गदर्शक भी सिद्ध होगा। शनै शनै आप स्वयं से ही आनंदित रहेंगे। आपका जीवन आनंदित रहेगा। "उपयोग व उपभोग’’के अंतर को समझने में आप सामर्थ्यवान बनेंगे। आपका जीवन आनन्द से भर जायेगा क्योंकि जीवन आनंद है।
जय गुरुदेव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- 2023-02-08
महर्षि जी की कृपा का फल
भोपाल [ महामीडिया ] महर्षि जी ने हजारों भावातीत ध्यान के केन्द्र स्थापित किये, लाखों व्यक्तियों को ध्यान और पतंजलि योग सूत्रों पर आधारित सिद्धि कार्यक्रम का प्रशिक्षण दिया। निष्काम कर्मयोग और ‘‘योगस्थ: कुरू कर्माणि’’ का प्रयोग प्रथम बार किसी ने सम्पूर्ण विश्व को प्रायोगिक रूप में दिया। इसी क्रम में महर्षि जी ने भगवद् गीता की व्याख्या भी लिखी जो अपने आप में एक अनूठी कृति है। लगभग इसी समय में महर्षि जी ने ब्रह्म सूत्रों की भी व्याख्या की और ‘‘साइन्स आफ बीइंग एण्ड आर्ट आफ लिविंग’’ नामक पुस्तक लिखी, जिनका अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हो चुका है और अब तक लाखों प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। महर्षि जी ने ‘‘चेतना विज्ञान’’ की रचना की और उनका ये चेतना विज्ञान करोड़ों लोगों ने एक पाठ्यक्रम के रूप में लिया और अपने जीवन के आधार चेतना को विकसित कर ब्रह्मीय चेतना के स्तर तक पहुँचे।
महर्षि जी का सत्संकल्प कि मनुष्य जन्म संघर्ष के लिये नहीं, दु:ख से व्यथित होने के लिये नहीं है, केवल आनन्द और मोक्ष के लिये हुआ है, इस सिद्धांत पर आधारित कार्यक्रम उन्हें निरंतर आगे बढ़ाते गये। वेद निर्मित, ज्ञान शक्ति और आनन्द चेतना के सागर, वेदान्तिक महर्षि जी वास्तविक ऐतिहासिक अमर जगतगुरु हो गये।
महर्षि जी ने विश्व भर में व्याप्त समस्याओं और संघर्ष की समाप्ति के लिये ‘‘विश्व योजना’’ बनाई जिसके प्रमुख उद्देश्यों में व्यक्ति का पूर्ण विकास करना, प्रशासन की उपलब्धियों को बढ़ाना, शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करना, समाज में प्रचलित विभिन्न प्रकार के अपराध और अप्रसन्नताकारक व्यवहार को समाप्त करना, पर्यावरण का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करना, व्यक्ति के आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति कराना था। इसके लिये महर्षि जी ने 2000 नये चेतना विज्ञान के शिक्षक तैयार किये और 2000 ‘विश्व योजना केन्द्र’ स्थापित किये। ‘ज्ञान युग’ की स्थापना के लिये महर्षि जी ने विश्व भ्रमण किया और प्रथम विश्वविद्यालय ‘महर्षि यूरोपियन रिसर्च यूनिवर्सिटी’ की स्थापना स्विट्जरलैण्ड में करके फिर अनेक वैदिक, आयुर्वेदिक और प्रबन्धन विश्वविद्यालयों की स्थापना की।
महर्षि जी ने आदर्श समाज की स्थापना के लिये विश्वव्यापी अभियान चलाया और 108 देशों में ‘यौगिक उड़ान’ का अभ्यास करने वाले समूह भेजे। इन देशों के वैज्ञानिकों ने और सरकारों ने यह पाया कि बड़ी संख्या में सामूहिक ध्यान अत्यन्त प्रभावी होता है। किसी भी राष्ट्र की जनसंख्या का एक प्रतिशत यदि सामूहिक भावातीत ध्यान करे तो सामूहिक चेतना में सतोगुण की अभिवृद्धि होकर रजोगुणी और तमोगुणी नकारात्मक चेतना का शमन होता है। वैज्ञानिकों ने इसे ‘महर्षि प्रभाव’ का नाम दिया। वर्ष 1983 में पहली बार ‘टेस्ट आॅफ यूटोपिया’ असेम्बली के नाम से 7000 यौगिक फ्लायर्स फेयरफील्ड आयोवा, अमेरिका में एकत्र हुए और कई सप्ताहों तक सामूहिक भावातीत ध्यान, सिद्धि कार्यक्रम और यौगिक फ्लाइंग का अभ्यास किया। तब वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि यदि विश्व की जनसंख्या के एक प्रतिशत के वर्गमूल बराबर व्यक्ति एक साथ, एक स्थान और समय पर सामूहिक यौगिक उड़ान भरें तो सतोगुण बहुत अधिक बढ़ेगा और सारी नकारात्मकतायें स्वयं ही समाप्त हो जायेंगी। इस अनुभव और प्रयोग के पश्चात सारे विश्व में अनेक विश्व शांति सभायें- ‘वर्ड पीस असेम्बलीस्’ आयोजित की गर्इं और उनके बहुत उत्तम परिणाम सामने आये।
महर्षि जी ने ‘‘रोग विहीन समाज’’ की स्थापना का न केवल नारा ही दिया, बल्कि आयुर्वेद के शार्षस्थ विद्वानों, शोधकर्ताओं, वैद्यों के साथ कई वर्षों तक शोध करके महर्षि जी ने आयुर्वेद के चिकित्सालयों और औषद्यी निर्माण शालाओं की स्थापना की। वैदिक स्वास्थ्य विधान के पाठ्यक्रमों की रचना करके हर व्यक्ति को स्वास्थ्य शिक्षा देने का विधान किया। देश-विदेश के अनेक संस्थानों में वैदिक स्वास्थ्य विधान के प्रमाण-पत्र व उपाधि पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। मंत्र चिकित्सा पर अनेक शोध कराये गये और अनेक कष्टसाध्य रोगों की त्वरित चिकित्सा आज सारे विश्व में उपलब्ध है।
महर्षि जी ने सम्पूर्ण वैदिक वांङ्गमय से चुन-चुनकर जीवनपरक और त्वरित लाभ प्रदाता सिद्धांतों और प्रयोगों के आधार पर ‘भूतल पर स्वर्ग निर्माण’ का कार्यक्रम बनाया और इसे जन-सामान्य को उपलब्ध कराया। महर्षि जी ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि व्यक्ति चाहे तो वह अपना वातावरण स्वर्ग जैसा बना सकता है। इसके लिये उसे वैदिक शाश्वत् सिद्धांतों और प्रयोगों को अपने जीवन में अपनाना होगा। व्यक्ति प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सिद्धहस्त होकर स्वयं अपने और दूसरों के जीवन के लिये स्वर्ग का निर्माता हो सकता है। यह विस्तृत अनोखी दुर्लभ विचार शक्ति केवल महर्षि जी की ही हो सकती थी।
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- 2023-02-06
भावातीत ध्यान और साहस
भोपाल [ महामीडिया] बुद्ध भगवान एक गाँव में उपदेश दे रहे थे। उन्होंने कहा कि ‘हर किसी को धरती माता के समान सहनशील तथा क्षमाशील होना चाहिए। क्रोध ऐसी आग है जिसमें क्रोध करने वाला दूसरों को जलाएगा तथा स्वयं भी जल जाएगा।’ सभा में सभी शान्ति से बुद्ध की वाणी सुन रहे थे, किंतु वहाँ स्वभाव से ही अतिक्रोधी एक ऐसा व्यक्ति भी बैठा हुआ था जिसे ये सारी बातें बेतुकी लग रही थीं। वह कुछ देर ये सब सुनता रहा फिर अचानक ही आग- बबूला होकर बोलने लगा, ‘तुम पाखंडी हो, बड़ी-बड़ी बातें करना यही तुम्हारा कार्य है। तुम लोगों को भ्रमित कर रहे हो। तुम्हारी ये बातें आज के समय में कोई अर्थ नहीं रखतीं।’ ऐसे अनेक कटु वचनों को सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। उसकी बातों से न तो वह दु:खी हुए, न ही कोई प्रतिक्रिया की। यह देखकर वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और बुद्ध के मुँह पर थूक कर वहाँ से चला गया। अगले दिन जब उस व्यक्ति का क्रोध शांत हुआ तो वह अपने बुरे व्यवहार के कारण पछतावे की आग में जलने लगा और वह उन्हें ढूँढ़ते हुए उसी स्थान पर पहुँचा, पर बुद्ध कहाँ मिलते, वह तो अपने शिष्यों के साथ पास वाले एक अन्य गाँव निकल चुके थे। व्यक्ति ने बुद्ध के बारे में लोगों से पूछा और ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जहाँ बुद्ध प्रवचन दे रहे थे वहाँ पहुँच गया। उन्हें देखते ही वह उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘मुझे क्षमा कीजिए प्रभु!’ बुद्ध ने पूछा: कौन हो भाई? तुम्हें क्या हुआ है? क्यों क्षमा माँग रहे हो?’ उसने कहा: ‘क्या आप भूल गए। मैं वही हूँ जिसने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था। मैं शर्मिन्दा हूँ। मैं मेरे दुष्ट आचरण की क्षमायाचना करने आया हूँ।’ भगवान बुद्ध ने प्रेमपूर्वक कहा: ‘बीता हुआ कल तो मैं वहीं छोड़कर आया और तुम अभी भी वहीं अटके हुए हो। तुम्हें अपनी गलती का आभास हो गया, तुमने पश्चाताप कर लिया। तुम निर्मल हो चुके हो, अब तुम आज में प्रवेश करो। बुरी बातें तथा बुरी घटनाएँ याद करते रहने से वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ते जाते हैं। बीते हुए कल के कारण आज को मत बिगाड़ो।’ उस व्यक्ति का सारा बोझ उतर गया। उसने भगवान बुद्ध के चरणों में पड़कर क्रोध के त्याग का तथा क्षमाशीलता का संकल्प लिया। बुद्ध ने उसके मस्तिष्क पर आशीष का हाथ रखा। उस दिन से उसमें परिवर्तन आ गया और उसके जीवन में सत्य, प्रेम व करुणा की धारा बहने लगी। बहुत बार हम भूल में की गयी किसी गलती के बारे में सोचकर बार-बार दु:खी होते और स्वयं को कोसते हैं। हमें ऐसा कभी नहीं करना चाहिए, गलती का बोध हो जाने पर हमें उसे कभी न दोहराने का संकल्प लेना चाहिए और एक नयी ऊर्जा के साथ वर्तमान को सुदृढ़ बनाना चाहिए। उपरोक्त कथा के सार को अपने जीवन में उतारना ही परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी के ब्रह्म वाक्य ‘‘जीवन आनंद है’’ का आधार है। सम्भवत: हम इसे असम्भव मान कर अपने जीवन में धारण करने का प्रयास ही नहीं करते या कहें, साहस ही नहीं कर पाते। किंतु परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित ‘‘भावातीत ध्यान’’ का नियमित प्रात: एवं संध्या के समय 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपके चरित्र में साहस की स्थापना करेगा क्योंकि दण्ड देना सरल है किंतु क्षमा कर देना साहस ही है। किसी की उदण्डता व अपशब्दों को न तो स्वीकार करें और न ही विचलित हों और क्रोधित होकर दण्डित करने का प्रयास भी न करें, क्योंकि यही हमारी सनातन परंपरा का आधार है। जब हम हमारी चेतना के स्तर से कार्य करते हैं तो उक्त कृत्यों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित ही नहीं है। तब हम नकारात्मकता का स्पर्श ही नहीं कर पाते, हम हमारी चेतना में स्थित ‘भगवत कृपा’ के सान्निध्य में आनंदित हो रहे होते हैं, क्योंकि जीवन आनंद है।
जय गुरुदेव , जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- 2023-01-23
मन का नियंत्रण
भोपाल [ महामीडिया] एक युवक की रहस्यवाद में रुचि थी। उसे एक संत मिले। सब कहते थे कि वह अनेक रहस्य जानते हैं पर, उनसे कुछ भी जानना बहुत कठिन था। युवक ने सोचा कि वह संत को प्रसन्न करेगा। उनकी बहुत सेवा करेगा। वह वृद्ध संत के पास रहने लगा। संत ने कहा, ‘तुम अपना समय नष्ट कर रहे हो। मेरे पास कुछ नहीं है। मैं बोलता भी कम हूँ, लोग सोचते हैं कि मैं कोई राज छुपा रहा हूँ।’ वह आदमी नहीं माना। वह बोला ‘मैं यहीं रहूँगा। आपको मुझे वह रहस्य देना होगा, जो सभी रहस्यों के द्वार खोलता है।’ संत के लिए वह आदमी बोझ बनता जा रहा था। संत को उसके रहने और खाने की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी। एक दिन तंग आकर संत ने युवक से कहा, ‘सुनो, यह बहुत सरल रहस्य है।’ फिर संत ने एक मंत्र बोला। युवक पहले से मंत्र को जानता था। युवक ने कहा, ‘मूर्ख मत बनाओ। इसे सब जानते हैं। यह रहस्य नहीं है।’ उन्होंने कहा, ‘मंत्र हर कोई जानता है, पर इसे खोलने की कुंजी नहीं।’ युवक ने कहा, ‘कुंजी?’ संत ने कहा, ‘तुम्हें इस मंत्र को पांच मिनट दोहराना है। बस, तब एक भी बंदर का विचार मन में नहीं लाना।‘ युवक ने कहा, ‘यह तो सरल है। मैंने जीवन में कभी भी बंदरों के बारे में नहीं सोचा। तो अब क्यों सोचूंगा?’ वह जाप के लिए जाने लगा। आश्चर्य की बात यह थी कि वह जहाँ जा रहा था, वहाँ बंदरों का विचार साथ चल रहा था। बंदर मस्तिष्क में आ गए थे। उसे हर स्थान पर बंदर अपनी ओर आते दिख रहे थे। भीड़ बढ़ रही थी। अभी जाप प्रारंभ भी नहीं किया था। उसने पूरी रात प्रयास किया कि। वह थक गया। वह संत के पास गया और कहा, ‘आप चाबी ले लो। मैं पागल होता जा रहा हूँ।’ संत ने कहा, ‘इसलिए मैं कुछ नहीं बताता। चुप रहता हूँ।’ आदमी ने कहा, ‘मुझे अब आपसे कुछ नहीं सुनना। आप बस चाबी ले लीजिए।’ संत ने कहा, ‘यदि चाबी देना चाहते हो तो कभी मंत्र भी नहीं दोहराना। दोहराओगे तो बंदर आएंगे।’ आदमी चला गया। अब कोई बंदर नहीं नहीं दिखा। पर, जब वो मंत्र बोलने की प्रयास करता तो बंदर आ जाते। उसे यह समझना था कि वह किसी विचार को दबाए नहीं। बंदर आएं, तो आने दे। उन्हें देखकर मुस्कराए और आगे जाने दे। जितना वह किसी विचार को दबाएगा, वह उतनी ही अधिक ऊर्जा से वापसी करेगा। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी सदैव कहा करते थे कि मन बहुत चंचल है उसे किसी भी अन्य दबाव से शांत नहीं किया जा सकता, अत: विचारों को आने दीजिये भावातीत ध्यान योग के नियमित अभ्यास से धीरे-धीरे मन के विचार कम होते जायेंगे। क्योंकि विचारों और भावों की उथल-पुथल चलती रहती है। हम सभी कभी न कभी विचारों और भावों से घिरे होते हैं। यह आवश्यक भी है। और हमें भावों और विचारों को दूर भगाने का प्रयास भी नहीं करना हैं। उनकी आपूर्ति आपके नियमित प्रात: संध्या के अभ्यास के साथ घटती जावेगी। ध्यान करने के लिए स्वच्छ जगह पर स्वच्छ स्थान पर बैठकर साधक अपनी आँखें बंद करके अपने मन को दूसरे सभी संकल्प-विकल्पों से हटाकर शांत कर देता है और ईश्वर, गुरु, मूर्ति, आत्मा, निराकार परब्रह्म या किसी की भी धारणा करके उसमें अपने मन को स्थिर करके उसमें ही लीन हो जाता है। कुशल साधक अपने मन को स्थिर करके लीन होता है उसे योग की भाषा में निराकार ध्यान कहा जाता है। गीता के अध्याय-6 में श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान की पद्धति का वर्णन किया गया है। ध्यान करने के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठा जा सकता है। शांत और चित्त को प्रसन्न करने वाला स्थल ध्यान के लिए अनुकूल है। प्रात:काल या संध्या का समय भी ध्यान के लिए अनुकूल है। ध्यान के साथ मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम का भी सहारा लिया जा सकता है। ध्यान के अभ्यास के प्रारंभ में मन की अस्थिरता और एक ही स्थान पर एकांत में लंबे समय तक बैठने की अक्षमता जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास के बाद मन को स्थिर किया जा सकता है और एक ही आसन में बैठने के अभ्यास से इस समस्या का समाधान हो जाता है। सदाचार, सद्विचार, यम, नियम का पालन और सात्विक भोजन से भी ध्यान में सरलता प्राप्त होती है। ध्यान का अभ्यास आगे बढ़ने के साथ मन शांत हो जाता है जिसको योग की भाषा में चित्तशुद्धि कहा जाता है। ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता।
जय गुरुदेव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- 2022-12-07
"ध्यान"- अनुभवात्मक ज्ञान
भोपाल [ महामीडिया] जीवन तथा व्यक्तित्व के विकास में सकारात्मक दृष्टिकोण उपयोगी है तथा नकारात्मक दृष्टिकोण त्यागने योग्य है । ईश्वर ने हम सबको अलग-अलग आकार रंग और व्यक्तित्व का बनाया है। पर जो लोग अपने आप से प्रसन्न नहीं होते वह प्रायः स्वयं को योग्य बनाने के लिए अपने अंदर परिवर्तन करना चाहते हैं उदाहरण के लिए किसी भारी शरीर के व्यक्ति को लगता है कि वजन को कम करके ही वह अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बना सकता है या सुंदर वह गोरे चेहरे से या भौतिक वैभव से या वह जो कमी उसे स्वयं में लगती है। अपनी इन कमियों को सुधारने में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपने गुणों की ओर ध्यान ही जाना बंद हो जाता है ।सच यह है कि आप कैसे लगते हैं इसका आपके गुणों से कोई लेना-देना नहीं है ।जब हम इस बात को समझ लेंगे कि हम जैसे हैं वैसे ही महत्वपूर्ण है ।बस स्वयं को और श्रेष्ठ बना सकते हैं ।हम सबके लिए जीवन का अलग-अलग अर्थ होता है और किन्हीं दो लोगों का जीवन एक सा होता भी नहीं है ।अतः जीवन का अर्थ और उद्देश भी सबके लिए भिन्न-भिन्न होते हैं ।पर मूल बात जो समान रूप से लागू होती है वह यह है कि कभी खुशी, दूसरे को प्रभावित करने ,प्रसन्न करने के लिए स्वयं का परिवर्तन उचित नहीं ।इस बात में कोई बुराई नहीं है कि लोग आपको पसंद करें और आप से प्रभावित हों ।परिश्रम में परिवर्तन का एकमात्र उद्देश्य ही नहीं होना चाहिए ।उद्देश तो आत्मानं मूर्ति होना चाहिए इसलिए अपने जीवन के लक्ष्य को समझें और जियें ।कहते हैं हम जब बड़े होने लगते हैं ,हमारे अंदर समझ आने लगती है और व्यस्त हो जाने तक हम समझ लेते हैं कि हमें किस प्रकार का जीवन जीना है ।हमारे लक्ष्य क्या होंगे और उन्हें कैसे प्राप्त करना है ।हम सभी अपने -अपने लक्ष्य को पाने के लिए अलग-अलग रणनीति बनाते हैं और उसके अनुसार चलने का प्रयास करते हैं ।पर ऐसा आवश्यक नहीं है कि सब कुछ हमारे सोचे अनुसार ही हो ।अच्छे या बुरे चाहे जैसे भी हो परिवर्तन आते ही रहते हैं ।कभी -कभी ऐसा भी होता है कि आप लक्ष्य के समीप होते हैं किंतु कुछ ऐसा घटित होता है कि पुनः प्रारंभ करना पड़ता है ।ऐसे में प्रायः अनुभव होने लगता है कि लक्ष्य तक पहुंचना संभव हो पाएगा या नहीं ।जो थक जाता है वह प्रयास करना छोड़ देता है और कुछ ऐसे भी होते हैं जो पुनः साहस जुटाकर आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं । तब संभव है कि पिछली बार जितना परिश्रम ही ना करना पड़े और आप अपने लक्षणों को पा लें ।कहने का अर्थ है कि परिवर्तन का कोई निश्चित पैमाना नहीं होता कुछ परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं तो कुछ आकस्मिक ।जो इन दोनों के बीच में सामंजस्य बिठाना सीख जाता है वह अंत में विजयी होता है ।हम कठिन कार्य से बचते हैं, हमें लगता है कि इसमें ज्यादा समय और परिश्रम लगेगा ।कई बार कठिन कार्यों को पूरा करने के लिए अनेक दूसरे कार्य और चुनौतियों से भी जूझना पड़ता है ।हम कुछ कार्यों को करने से इसलिए भी बचते हैं क्योंकि हमें उनके परिणाम पर विश्वास नहीं होता ।कार्यों से बचने के स्थान पर हमें उन पर थोड़ा-थोड़ा कार्य करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ।अपनी सीमाएं तय करना आवश्यक है ।परिश्रम को बहुत सारी सीमाओं में बाधित करना सही नहीं है ।दूसरों से मिलने से बचना या मनोरंजन के समय को व्यर्थ मानना हमें दूसरों से अलग कर देता है ।और हमें अकेलेपन की ओर ले जाने लगता है ।हो सकता है कि कई चीजें सच में आवश्यक हो पर हर चीज में लाभ या हानि ढूंढने की आवश्यकता नहीं होती ।श्रेष्ठ है कि हम बोले भाव संतुलन से बड़े विश्वास को चुने और सब विश्वास ही हो जाएं ।प्रत्येक क्षण हमें विश्वास या भय में से किसी एक को चुनने का विकल्प सदैव होता है ।विश्वास से ही हमारा प्रारंभ होता है और वहीँ हमें पहुंचना है और उसी से हमारे सारे अनुभव जुड़े हैं ।आवश्यकता है तो बस लक्ष्य की ओर अपनी उर्जा को विश्वास की दिशा में ले जाने की ।कहते हैं भय और उदासी का कोई अर्थ नहीं रहता ।जब विश्वास जीवन की दिशा बन जाता है ।स्वयं के लक्ष्य पर केंद्रित करने के लिए नियमित प्रातः एवं संध्या के समय भावातीत ध्यान योग शैली का अभ्यास आपको आपके लक्ष्य पर निर्विघ्न यात्रा का अनुभव प्रदान करता है ।यह एक विश्वास है जो अनूभावनात्मक ज्ञान पर आधारित है ।यह आंतरिक शांति जो दिशा होने और यह जानने से आती है कि आप कहां जा रहे हैं और वहां कैसे पहुंचेंगे ।इसकी योजना है परिश्रम और ध्यान के साथ जीना ।यह व्यक्ति का एक प्रकार ना होकर एक कौशल है ।अतः इसका अर्थ है कि आप भी इसका अभ्यास कर पारंगत होकर आनंदित रह सकते हैं ।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-11-10
ज्योतिर्मय दीपावली
भोपाल (महामीडिया) असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योमार्मृतं गमय॥
उपरोक्त मंत्र वृहदारण्यक उपनिषद से है तथा यह मंत्र सोमयज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा बोला जाता है। इस श्लोक का अर्थ है कि मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। हे प्रभु! मेरे अंतस में विद्यमान असत्य का विनाश कर सत्य कि स्थापना करो। मेरे मन से मृत्यु का भय दूर कर मुझे अभय प्रदान करो। यह मंत्र स्वयं को स्थापित करने का मूल मंत्र है। असत्य क्या है। मात्र स्वयं के स्वार्थ असत्य है। वहीं सभी के लिये मंगल कामना करना 'सत्य' है। 'शांति' एक अनुभूति है जो भीतर से आती है। यह कोई भौतिक वस्तु नहीं हैं। जिस पर हम आधिपत्य स्थापित कर लें। दीपावली प्रकाश पर्व के रूप में हमें सन्देश भी देती है किन्तु हम प्रत्येक वर्ष इस पर्व को हर्षोउल्लास से मनाते तो है किंतु बाहरी या ऊपरी तरह से जिस दिन आंतरिक या आत्मिक दीपावली का महत्व हम समझेंगे उस दिन से हमारे जीवन का प्रत्येक दिन दीपावली पर्व जैसा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाशवान एवं आनंदमय हो जाएगा। दीपावली का दीपक हमें यह संदेश देता है कि हम स्वयं प्रकाशवान बनें, जिससे हम स्वयं कि नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मकता कि यात्रा प्रारंभ करें। हमारा सामर्थ्य, सृष्टि के सामने नगण्य है किंतु हम स्वयं को तो प्रकाशित कर ही सकते हैं। प्रभु श्रीराम, रावण वध कर जब अयोध्या आये थे तो सम्पूर्ण अयोध्या अपने राजा श्रीराम के स्वागत में दिन-रात जुट गई थी। ठीक उसी प्रकार जब हम चाहते हैं कि भगवान श्रीराम हमारे मन में वास करें, तो सर्र्वप्रथम हमें हमारे छल, कपट व नकारात्मकता को हटाना होगा व प्रेम, आस्था और विश्वास से हृदय का रंग रोगन करना होगा, तभी हमारे आराध्य, करुणा के सागर, प्रभु श्री राम हमारे हृदय में वास कर सकेंगे। प्रभु श्रीराम का जीवन हमें सत्य पर डटे रहने का संदेश देता है। वह हमें शिक्षित करता है कि किस प्रकार कठिन परिस्थितियों में किस प्रकार निर्भय होकर, धैर्य धारण करते हुए अपने कर्तव्यपथ पर चलते रहना चाहिये जिससे हम लंका रूपी विशाल नकारात्मकता पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं। श्रीराम का जीवन हमें पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों को निभाने का संदेश देते हुए उनका महत्व भी बताता है। जिस प्रकार श्रीराम को वनवास होने पर राजा दशरथ का परिवार माता कैकेयी के निर्णय के विरुद्ध हो राम को वनवास जाने से रोकता है। किंतु पुत्र अपने पिता के वचनों का मान रखते हुए स्वयं ही वन को चल देते हैं, तो उनके साथ राजकुमारी सीता माता व भ्राता लक्ष्मणजी भी वन गमन को तैयार हो जाते हैं। राजकुमार भरत, श्रीराम जी कि चरण पादुकाओं को अयोध्या के राज सिंहासन पर रख धर्मनिष्ठ होकर अयोध्या कि प्रजा की सेवा, सुरक्षा करते हैं। दीपावली हमें भय से निर्भय होने का सन्देश देती है वह हमें सिखलाती है कि जीवन में भय का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। निर्भय व आनंदित होकर प्रत्येक परिस्थिति का दृढ़ता पूर्वक सामना करना चाहिए। दीपावली के दिन माता लक्ष्मीजी कि हम पूजन एवं आराधना करते हैं वह कमल पर विराजमान है। कमल हमें यह संकेत देता है कि जिस प्रकार कमल का पुष्प कीचड़ में खिलकर भी सर्वधा कीचड़ से मुक्त रहता है। ठीक उसी प्रकार जब तक हमारा तन व मन माया रूपी भौतिक कीचड़ में लगा रहेगा तब तक मान, सम्मान, साहस और श्री युक्त देवी माँ लक्ष्मी की कृपा होना कठिन है। अत: भीतर व बाहर से शुद्ध आनंदित होकर परिवार सहित माँ लक्ष्मी की आराधना करें। वे अवश्य ही हम सभी पर अपनी कृपा व आनंद की वर्षा करेंगी। क्योंकि 'जीवन आनंद' है। शुभ दीपावली की मंगल कामनाओं के साथ।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-10-22
भय और चिंता से मुक्ति का मार्ग भावातीत ध्यान
भोपाल (महामीडिया) बाबा तुलसीकृत, श्री रामचरित मानस का यह दोहा सभी को सावधान करते हुए आनंदित जीवन का रहस्य भी उजागर करता है।
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
भावार्थ- ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे राम सुंदर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता। किंतु माया के प्रभाव से ग्रसित हम उसे समझ नहीं पाते। हममें से अधिकतर लोग जब भय के बारे में सोचते हैं, तो शारीरिक संकट के बारे में ही अधिक सोचते हैं, जो किसी बाहरी घटना से उत्पन्न होता है, जैसे तेज आवाज, बहुत ऊँचे स्थान से नीचे देखना या भीड़ के सामने खड़े होना। शारीरिक भय भी चिंता (फोबिया) का रूप ले सकता है। अध्ययन बताते हैं कि लगभग 12 प्रतिशत वयस्क लोग किसी न किसी समय की चिंता में त्रस्त हैं। चिंता (फोबिया) एक विशिष्ट स्थिति है, जिसमें किसी धन परिस्थिति, वस्तु या जानवर का अत्यधिक भय होता है। चिंता भी एक दीर्घकालिक भय ही है। यह प्राय: वर्तमान के स्थान पर भविष्य से जुड़ा भय है। प्राय: अधिकतर लोग इससे प्रभावित होते हैं। जब हम तनाव की स्थिति में लंबे समय तक रहते हैं, तब हमारा शरीर कोर्टिसोल नामक एक रसायन छोड़ता है। बहुत अधिक कोर्टिसोल से सोने व ध्यान केंद्रित करने में समस्या आ सकती है, यहाँ तक कि प्रतिरक्षा तंत्र भी प्रभावित हो सकता है। इसलिए भय से लड़ना आवश्यक है। क्योंकि भय आपके साहस को कम करता हैं। आजकल अनिश्चितता का भय तेजी से जड़ें जमा रहा हैं। हममें से बहुत सारे लोगों की सबसे बड़ी आवश्यकता है- ''निश्चिंतता''। हम जानना चाहते हैं कि आगे क्या होगा। अनिश्चितता का भय हमें अपने 'कंफर्ट जोन' से बाहर निकलने से रोकता है। यह बताता रहता है, 'आप यहाँ सुरक्षित हैं।' और यही कारण है कि बहुत सारे लोग अपने लक्ष्य को पाने में असमर्थ अनुभव करते हैं। असफलता का भय एक और आम भय है। हम सब स्वयं को महत्वपूर्ण माने जाने की चाहत तो रखते हैं, पर असफलता हमें छोटा और महत्वहीन अनुभव कराती है और कोई क्रांतिकारी कार्य करने से रोकती है। ऐसे में, सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भय के इन रूपों से हम स्वयं को कैसे स्वतंत्रत कराएँ' प्राय: भय को दूर करने की कला सीखना किसी भी समस्या के समाधान की चुनौती के समान है। सबसे पहले चुनौती की पहचान करनी चाहिए। आप किससे भयभीत होते हैं' कुछ मिनटों के लिए शांत बैठें और अपने विचारों, भावनाओं और शारीरिक संवेदनाओं का निरीक्षण करें। जो भी सामने आता है, उसे लिखते जाएँ, और जो चीज आपको प्रभावित करती है, उसे स्पष्टता से पकड़ने का प्रयास करें। जैसे ही आपको केंद्रबिंदु मिला, आप भय से निपटने में स्वयं को सशक्त अनुभव करेंगे। जब आपको भय लगता है, तब आपकी अंतरात्मा आपसे कुछ कहना चाहती है। उसे सुनिए। यदि आप निरंतर चिंता से विचलित अनुभव करते हैं, तो यह शायद एक अवचेतन भय है, जिस पर आपको ध्यान देने की आवश्यकता है। अपने भय के साथ कुछ मिनट बैठिए। सोचिए। चिंतन का कोई एक क्षण बहुत प्रभाव डाल सकता है। वर्तमान समय की लक्ष्यविहीन प्रतिस्पर्धा ने हमारे जीवन को अत्यंत व्यस्त कर दिया है हमारे पास कुछ सोचने, समझने या विचार करने का समय की नहीं हैं। इस समस्या को भांपकर वैज्ञानिक संत परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने 'भावातीत-ध्यान-योग-शैली' को प्रतिपादित किया। जिसका प्रात: एंव संध्या के समय 15 से 20 का नियमित अभ्यास आपके जीवन से भय को दूर कर आनंद को स्थापित करने में आपका सहयोगी होगा। क्योंकि महर्षि महेश योगी जी का मानना था कि 'जीवन आनंद है।' भय था संघर्ष नहीं अत: 'भावातीत-ध्यान-योग-शैली' का नियमित अभ्यास आपके जीवन से भय को दूर करते हुए भविष्य में आने वाले दु:खों का सामना करके उन्हें दूर करेगा। क्योंकि जीवन आनंद है।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-08-14
संतुष्टि का भाव
भोपाल (महामीडिया) मानव सबसे बुद्धिमान प्राणी भले हो, उसका स्वभाव है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। जितना प्राप्त होता है, उससे अधिक की इच्छा उसे निराश करती रहती है। लियो टॉलस्टॉय ने कहा भी है कि अगर आप पूर्णता ढूंढ़ रहे हैं, तो कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकते। संतुष्टि तो मन की अनंत गहराई में छिपी वह शक्ति है, जिसको भौतिक जगत में खोजा नहीं जा सकता। इसको अपने अंदर खोजना पड़ता है। बिल्कुल उसी प्रकार, जैसे मृग कस्तूरी की सुगंध के लिए भटकता रहता है, पर वह कभी नहीं प्राप्त होती, क्योंकि वह तो सुगंध तो उसके अंदर होती है। भौतिक जगत हमें अपनी ओर आकर्षित करता है, जिसके कारण हमारी इच्छाएं सदैव बढ़ती रहती हैं। एक इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। इसके फलस्वरूप मानव जीवन भर दु:खी ही रहता है। हमारे जीवन में कितने भी भौतिक सुख क्यों न हों, असंतोष सदैव बना रहता है। यह दु:ख का सबसे प्रमुख कारण है। इसी असंतोष को मिटाने के लिए हमें संतुष्टि की आवश्यकता होती है। इस सत्य को स्वीकारना सरल नहीं है कि हम अपने जीवन में कभी पूर्ण नहीं हो सकते, क्योंकि इच्छाओें का अंत नहीं है। इसलिए भारतीय मनीषा की दृष्टि में बुद्धिमान वही है, जो उन चीजों के लिए शोक नहीं करता जो उसके पास नहीं हैं, बल्कि उन चीजों के लिए प्रसन्न रहता है, जो उसके पास हैं। पहला तो यह कि अधिक से अधिक संचय करते रहें, जो कभी संभव नहीं हो सकता, क्योंकि कुछ न कुछ अधिक किसी न किसी के पास रहेगा ही, इसलिए दूसरा मार्ग अपनाना चाहिए, जिसमें सदैव हमें कम से कम की आवश्यकता पड़े। जीवन जैसा भी है या जो कुछ हमें मिला है, उससे हमें अधिक से अधिक प्रसन्नता एकत्रित करनी चाहिए और अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करना चाहिए। हम स्वयं को जब यह समझाने में सफल हो जाएं कि हमारी समस्त इच्छाएं पूरी हो चुकी हैं और अब हम बिना किसी व्यापक परिवर्तन के अपना जीवन आनंदपूर्वक बिताने के लिए तैयार हैं, सम्भवत: तब हम तनावों को अपने से दूर झटक पाएंगे। हमें अपने जीवन में मूलभूत आवश्यकताओं, इच्छाओं और परिवर्तनों से संतुष्टि को नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि जब तक जीवन है, तब तक आवश्यकतायें, इच्छायें जो हैं, उनके साथ प्रसन्न रहने के मर्म को समझना बहुत आवश्यक है। उसके लिए प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होना, संतोषी होना है। यह कहना एवं लिखना सरल है किंतु आत्मसात करना सभी को कठिन लगता है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित ''भावातीत ध्यान योग'' का नियमित प्रात: एवं संध्या, 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको अपने लक्ष्य चयन एवं जीवन में उसकी उपयोगिता एवं महत्व के प्रति भी सजग करते हुए जीवन को आनंदित बनाने में आपका मार्गदर्शन करेगा। यह एक अनुभव है जो आप स्वयं भी अपने जीवन में भावातीत ध्यान के अभ्यास को अपनाकर 'जीवन आनंद है' वाक्य की सार्थकता का परिमार्जन कर सकते हैं।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-08-01
आचरण ही आनंद का आधार है
भोपाल (महामीडिया) सौन्दर्य बोध सदियों से हमारे विमर्श का केन्द्र रहा है। प्रकृति से लेकर साहित्य तक में सुन्दरता की खोज होती है। चाहे वह लेखक हो या दार्शनिक सभी ने सुंदरता के प्रतिमानों पर विमर्श किया है। प्राय: बाहरी सुन्दरता कि तुलना में आंतरिक सुंदरता की उपेक्षा की जाती है जबकि तन की सुन्दरता से अधिक मन कि सुन्दरता आवश्यक होती है क्योंकि हमारा सुन्दर चित्त ही सुन्दरता सोचता है और वही हमारे व्यवहार में आती है। अत: हमारी सुन्दर सोच ही हमें सुन्दर व्यवहार के प्रति प्रेरित करती है। अत: स्पष्ट है कि आंतरिक सुंदरता से ही ज्ञानी पुरुष हमारा मूल्यांकन करते हैं। परमानंदजी कहते हैं कि कुछ लोग जन्म से लोकप्रिय स्वभाव के होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति उनके प्रति आकर्षित हो जाता है। कुछ लोग कभी पसंद किए जाते और कुछ लोग न तो पसंद किए जाते हैं, और न ही नापसंद, वे मात्र उपेक्षित कर दिए जाते हैं। ईश्वर, आकर्षक गुणों के असमान वितरण के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य के चरित्र में भिन्नताएं उसकी अपनी उपनी उपज हैं। स्वयं उसने ही इन प्रिय या अप्रिय गुणों को अपने इस जीवन उत्पन्न किया है। बहुत बड़ा अन्याय होता, यदि ईश्वर कुछ बच्चों को आरंभ से ही अच्छे, प्रियकर गुणों की सुविधा और अन्य बच्चों को बुरे गुणों की असुविधा के साथ भेजने के लिए उत्तरदायी होते। परंतु उन्होंने कुछ बच्चों में बुरी प्रवृत्तियों और दूसरों में अच्छी प्रवृत्तियों को स्थापित नहीं किया, अत: हम ईश्वर को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते। व्यक्ति को स्वयं अपना और दूसरों का विश्लेषण करना सीखना चाहिए, जिससे पता चल सके कि क्यों कुछ लोग सभी द्वारा पसंद किए जाते हैं, और कुछ नहीं। अत: विश्लेषण से सबसे पहली जिस बात का पता चलता है, वह यह कि यदि कोई लोकप्रिय बनना चाहता है, तो उसे स्वयं को अंदर से और अधिक आकर्षक बनाना चाहिए। कभी-कभी शारीरिक रूप से अत्यधिक आकर्षक व्यक्ति भी विकर्षक हो सकता है, क्योंकि उसकी वाणी और क्रिया-कलापों से उसके से अंदर की कुरूपता झलकती है। एक समय था, जब लोकप्रियता का रहस्य वह एक प्रकार का शारीरिक आकर्षण और चुंबकत्व माना जाता था। परंतु यह आवश्यक नहीं कि वह होने से ही कोई लोकप्रिय हो। सबसे अच्छे और बुरे गुण यह तय करते हैं कि हम किस प्रकार के लोगों द्वारा पसंद किए जाते हैं। बुराई, बुराई को आकर्षित करती है और अच्छाई, अच्छाई को। ऐसा आकर्षण उत्पन्न करना चाहिए जो अच्छाई को हमारी ओर आकर्षित करे। क्या बाहरी तत्व, जैसे सुंदर चेहरा या कपड़े, इस प्रकार का क्षणिक आकर्षण प्रदान कर सकते हैं? अत: हमें इसे अपने अंतर में ही उत्पन्न करना होगा। आपका चेहरा एक दर्पण है, जो आपकी हर बदलती भावना को प्रकट कर देता है। आपके विचार और मनोदशा सागर की लहरों की तरह ज्वार-भाटा लेते हुए चेहरे की मांसपेशियों में बहते हैं और निरंतर आपकी मुखाकृति को बदलते रहते हैं। वह आपके मुख पर आपके अंदर को देख लेता है और उसी के अनुरूप प्रतिक्रिया करता है। याद रखें, व्यक्ति कुछ सीमा तक ही पहनावे से पहचाना जाता है, अधिकांशत: वह आचरण से ही जाना जाता है। महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित भावातीत ध्यान योग शैली का नियमित प्रात: एवं संध्या का 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको भीतर से सुन्दर बनाने के लिए आपके सहयोगी का कार्य करते हुए आपको प्रेरित व प्रोत्साहित करता है और आंतरिक सुंदरता हमारे व्यवहार में आनंद भर देती है क्योंकि "जीवन आनंद है"।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-06-06
इच्छा से मुक्ति
भोपाल (महामीडिया) एक व्यक्ति लंबे समय से प्रभु साधना में रत था। अचानक एक दिन एक देवदूत उसके पास आ गया। देवदूत ने कहा, 'आपकी प्रार्थनाएँ स्वीकार्य कर ली गई हैं। देव, आपसे प्रसन्न है। आप उनसे कुछ भी वरदान माँग सकते हैं, आपकी इच्छा तुरंत पूरी कर दी जाएगी।' व्यक्ति यह सुनकर अश्चर्य चकित हो गया। थोड़ा सोचकर बोला, 'आपने आने में देर कर दी। जब मुझे वस्तुओं की इच्छा थी, तब आप नहीं आए और अब जब मेरी कोई इच्छा ही नहीं रही, मैंने स्वयं को स्वीकार कर लिया है, मैं स्वयं के साथ सहज हो गया हूँ, अत: मैं प्रतिक्षण प्रार्थना करता हूँ, इसलिए नहीं कि मुझे अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी है, बस इसलिए कि मुझे ऐसा करना अच्छा लगता है। मेरी प्रार्थनाएँ अब किसी प्राप्ति के लिए नहीं करता हूँ।' जैसे मैं सांस लेता हूँ, वैसे ही साधना करता हूँ।' इस पर देवदूत ने कहा, 'यह तो अपमान होगा। अगर भगवान वरदान माँगने के लिए कह रहे हैं तो आपको माँगना ही होगा।' व्यक्ति सोच में पड़ गया और बोला 'मैं क्या माँगू? क्या आप कुछ सुझाव दे सकते हो? मैंने सब कुछ स्वीकार कर लिया है, मैं अब स्वयं को पूर्ण अनुभव करता हूँ। आप प्रभु को कह सकते हैं कि मेरे इस अनुभव के लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। यह भाव बहुत सुंदर है। अब कोई कमी नहीं है।' देवदूत जिद पर अड़ा रहा। वह बोला, 'नहीं, आपको कुछ माँगना ही होगा। यह एक प्रकार का नियम है, जिसका पालन करना चाहिए। आप इस बात को भी समझो।' तब व्यक्ति ने कहा, 'यही बात है तो भगवान को कहिए जिस प्रकार मैं अभी इच्छारहित हूँ, मेरे भीतर यही भाव सदैव बने रहें।' यह कथा पड़ना सरल है किंतु इच्छा रहित होना अत्यंत कठिन होता है। किंतु जिस प्रकार उपरोक्त कथा में साधनरत व्यक्ति किसी इच्छा की पूर्ती के लिये साधना करता है। संभवत: साधना करते-करते उसकी चेतना जागृत हो गई हो और उसे आभास हुआ हो कि अब उपरोक्त इच्छा की उसे आवश्यकता नहीं है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहते हैं, कि इस संसार में कर्म के अतिरिक्त सभी कुछ 'माया' है और गुरुदेव शंकराचार्य श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी का प्रिय भजन है, जो यह कहता है कि माया सभी को ठग लेती है। अत: इच्छा तो मात्र प्रभुभक्ति की होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि आप कोई इच्छा रखते हों, तो आप अंत में स्वयं को ठगा हुआ सा अनुभव करेंगे। सनातन परंपरा में धन, सम्पदा का सर्वश्रेष्ठ उपयोग दान बताया है, क्योंकि संग्रह व उपभोग तो हमारी इच्छाओं को बढ़ाता है और यदि हम ययाती सा अंत नहीं चाहते तो अपनी इच्छाओं को भी दान कर उससे मुक्ति पा ले। अनेक ग्रंथों में दान की गई वस्तु के बदले में इस जन्म में या अगले जन्म में फल प्राप्ति का भी विवरण मिलता है, जैसे कि अमुक वस्तु दान करने से अमुक फल कि प्राप्ति होती है। किंतु जिस प्रकार धु्रव, प्रहलाद, माता शबरी ने इच्छाओं की त्याग कर बैकुण्ठ धाम में अपना स्थान बनाया और प्रभु की भक्ति प्राप्त की वो धन्य हो गये, इसी प्रकार इच्छा मुक्ति की कठिन यात्रा में आपकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने भावातीत ध्यान योग शैली का प्रतिपादन किया। जिसका प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या के समय 15 से 20 मिनट का नियमित अभ्यास आपकी इच्छा मुक्ति यात्रा में आपकी सहायता करते हुए आपको इच्छारहित बनाते हुए परमब्रह्म के दर्शन से आनंदित कर देगा क्योंकि जीवन आनंद है।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
- 2022-05-06
सफल जीवन
भोपाल (महामीडिया) एक बार अर्जुन ने कृष्ण से पूछा- हे माधव.. ये ‘सफल जीवन’ क्या होता है?, कृष्ण, अर्जुन को पतंग उड़ाने ले गए। अर्जुन, कृष्ण को ध्यान से पतंग उड़ाते देख रहे थे। थोड़ी देर बाद अर्जुन बोले- माधव ये धागे के कारण पतंग अपनी स्वतंत्रता से और ऊपर की ओर नहीं जा पा रही है, क्या हम इसे तोड़ दें? ये और ऊपर चली जाएगी। कृष्ण ने शीघ्र धागा तोड़ दिया। पतंग थोड़ा-सा और ऊपर गई और उसके बाद लहरा कर नीचे आने लगी और दूर अनजान स्थान पर जा कर गिर गई। तब कृष्ण ने अर्जुन को जीवन का दर्शन समझाया। पार्थ ‘जीवन में हम जिस ऊँचाई पर हैं। हमें प्राय: लगता की कुछ चीजें, जिनसे हम बंधे हैं वे हमें और ऊपर जाने से रोक रही हैं; जैसे: घर, परिवार, अनुशासन, माता-पिता, गुरु और समाज और हम उनसे स्वतंत्र होना चाहते हैं। वास्तव में यही वो धागे होते हैं- जो हमें उस ऊँचाई पर बना के रखते हैं। ‘इन धागों के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे परन्तु बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो बिन धागे की पतंग का हुआ।’ अत: जीवन में यदि आप ऊँचाइयों पर बने रहना चाहते हैं तो, कभी भी इन धागों से सम्बंध मत तोड़ना।’ धागे और पतंग जैसे जुड़ाव के सफल संतुलन से मिली हुई ऊँचाई को ही ‘सफल जीवन कहते हैं।’ सम्बंध का मतलब सिर्फ समझौता नहीं, सम्बंध निभाना सरल नहीं, इसके लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। किंतु इसका अर्थ ये नहीं कि सम्बंध निभाने के लिए प्रत्येक मोड़ पर आप समझौते करते चलें। समझौता और सामंजस्य, ये दोनों एक उत्तम सम्बंध के लिए आवश्यक हैं। पारिवारिक रिश्तों का प्रबंधन सदैव सरल नहीं होता है परिवार जीवन के परामर्श एक ऐसा स्थान है जहाँ आप समस्याओं और चिंताओं पर खुलकर परामर्श ले सकते हैं। चाहे आप माता-पिता का उत्तरदायित्व पर सहमत होने के लिए संघर्ष कर रहे हों, अपने साथी या जीवनसाथी से जुड़ने में परेशानी हो या अपने बच्चे के साथ संवाद करने में सहायता की आवश्यकता हो, इन चुनौतियों के बारे में बात करने से आपको सकारात्मक समाधान खोजने में सहायता मिलती है। हम सभी अपने जीवन में व्यक्तिगत एवं पारिवारिक सम्बंधों में समस्याओं का अनुभव करते हैं। किंतु सत्य तो यह है कि हम सभी एक दूसरे से अलग हैं। अगल व्यवहार और अलग अनुभवों के साथ जब आप किसी के साथ सम्बंध निभाते हैं, तो कई बार कुछ परेशानियाँ आ सकती हैं। ऐसे में आप अगर सचमुच अपने सम्बंध को साधना चाहते हैं और उसके साथ बना रहना चाहते हैं, तो आपको आवश्यकता है कुछ बिंदु की जो आपके सम्बंधों को और मजबूत बना सकते हैं। जैसे किसी भी सम्बंध की नींव होता है विश्वास। भले ही वह प्यार का सम्बंध हो या मित्रता का। अपने सम्बंधों में विश्वास बनाएँ रखें। साथी पर विश्वास करें और स्वयं भी कोई ऐसा कार्य न करें जो साथी का विश्वास टूटे। सम्बंधों में सत्यनिष्ठा को बनाये रखें और अपने साथी के प्रति सच्चाई और सत्यनिष्ठ से सम्बंध निभाएँ। हर किसी को अपना आत्मसम्मान प्यारा होता है। किंतु अगर आप बार-बार उसके आत्मसम्मान पर प्रहार करेंगे तो यह पलट कर भी आ सकता है, जो सम्बंध के लिए घातक सिद्ध होगा। अत: अपने साथी का सम्मान करें। बहुत आवश्यक है, कि आप अपने सम्बंधियों से बात करें। भले ही आप कितने ही व्यस्त रहते हों, किंतु समय निकालें और अपने सम्बंधियों से बात करें। अगर आप चाहते हैं कि आपका साथी प्रतिज्ञापालक रहे, तो उसके लिए आपको स्वयं प्रतिज्ञापालक बने रहना होगा। ऊपर जितनी भी बातें हमने आपको बताई वह प्रत्येक सम्बंध के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। प्रत्येक सम्बंधी को प्रसन्नता का अनुभव कराएँ। जीवन में किसी चीज से समझौता नहीं करना चाहिए। किंतु जब बात सम्बंधों की हो तो जीवन सिद्धांत में क्षणिक परिवर्तिन कर देने चाहिए। अपने सम्बंधी को अपने साथ सुरक्षित अनुभव कराएँ। कहते हैं न कि जो आपका साथ कठिनाई में दे उसका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। तो बस किसी भी सम्बंध को दृढ़ बनाने वाला है विश्वास। जो प्रत्येक परिस्थिति में साथ बना रहता है। एक अच्छा और श्रेष्ठ सम्बंध आपको प्रसन्नता और विश्वास देता है, अयोग्य या अपूर्ण नहीं बनाता। ऐसे में अगर आपका सम्बंध आपसे आपका आत्मविश्वास छीन रहा है तो इसका अर्थ है कि अपने सम्बंध के लिए आपका बलिदान बहुत अधिक है। हम सबकी अपनी आस्था होती है फिर चाहे वो धार्मिक हो या आध्यात्मिक। ऐसे में अगर कोई आपको अपनी आस्था छोड़ने या परिवर्तिन के लिए दबाव डालता है तो ये आपके लिए चेतावनी हो सकती है। सम्बंधों में आवश्यक है कि प्रत्येक सम्बंध में स्वयं की स्वतंत्रता हो, वो कार्य करने की जो आप करना चाहते हों। सम्बंध का आधार सच्चाई और विश्वास होता है। परिवर्तन, उन्नति के लिए होते हैं किंतु इसका अर्थ ये नहीं कि आप अपना मूल व्यक्तित्व खो दें। क्योंकि अंतत: आपका व्यक्तित्व ही था जिसे पहली दृष्टि में आपके सम्बंधी ने पसंद किया था। अपने सम्बंधी के स्वप्नों को अपना बनाना और उसे पूरा करने में उनकी सहायता करना अच्छी बात है। किंतु इसका अर्थ ये नहीं कि आप अपने स्वप्नों और लक्ष्य को भूल जाएँ जिसे आप सदैव पाना चाहते थे। आपके साथ जब दो लोग रहते हैं तो स्पष्ट है निर्णय भी दोनों के ही होने चाहिए। प्रत्येक निर्णय में किसी एक का एकाधिकार गलत है। ऐसे में इस बात का ध्यान रखें कि आपके द्वारा लिए गए निर्णय का सम्मान हो। सफल जीवन की शुभकामनाओं के साथ।
जय गुरुदेव, जय महर्षि
- 2022-02-04
दुःखों की निवृति का मार्ग
भोपाल (महामीडिया) एक बहुत ही निर्धन व्यक्ति राजा के पास गया और उसने राजा से कहा कि मेरी सहायता कीजिये। राजा दयालु थे। राजा ने पूछा कि ‘क्या सहायता चाहिए?’ निर्धन व्यक्ति ने कहा ‘थोड़ा-सा भूखंड’ राजा ने कहा, ‘कल प्रात: सूर्योदय के समय तुम यहाँ आना, भूमि पर तुम दौड़ना जितनी दूर तक दौड़ पाओगे वो पूरा भू-खंड तुम्हारा। परंतु ध्यान रहे, जहाँ से तुम दौड़ना आरंभ करोगे, सूर्यास्त तक तुम्हें वहीं लौट आना होगा, अन्यथा कुछ नहीं मिलेगा।’ आदमी प्रसन्न हो गया। सुबह हुई सूर्योदय के साथ आदमी दौड़ने लगा। आदमी दौड़ता रहा, दौड़ता रहा, सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर आदमी का दौड़ना नहीं रुका था। वो थोड़ा थकने भी लगा था, पर रुका नहीं उस के मन मे था थोड़ा परिश्रम और करलूँ। फिर सम्पूर्ण जीवन आराम से बीतेगा। संध्या होने लगी थी, निर्धन व्यक्ति को याद आया, सूर्यास्त तक लौटना भी है, अन्यथा कुछ नहीं मिलेगा। उसने वापस दौड़ना आरंभ किया। वो काफी दूर चला आया था। अब उसे वापस समय पर लौटना था। सूरज पश्चिम की ओर हो चुका था। आदमी ने पूरा दम लगा दिया। वो लौट सकता था। पर समय तेजी से बीत रहा था। वो पूरी गति से दौड़ने लगा। पर अब तेजी से दौड़ा भी नहीं जा रहा था। वो हांफने लगा था। पर रूका नहीं दौड़ता रहा, दौड़ता रहा और थक कर गिर पड़ा, उसके प्राण वहीं निकल गए। राजा यह सब देख रहे थे। अपने सहयोगियों के साथ वो वहाँ गये, जहाँ निर्धन व्यक्ति भूमि पर मृत पड़ा था। राजा ने उसे गौर से देखा, फिर मात्र इतना कहा- ‘इसे मात्र दो गज भूमि की आवश्यकता थी, नाहक ही ये इतना दौड़ रहा था।’ आदमी को लौटना था, पर लौट नहीं पाया, वो लौट गया वहाँ, जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता। हमें अपनी इच्छाओं की सीमा का पता नहीं होता। हमारी आवश्यकताएँ तो सीमित होती हैं, पर इच्छाएँ अनंत। अपनी इच्छाओं के मोह में हम लौटने की तैयारी ही नहीं करते। जब करते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है। फिर हमारे पास समय नहीं बचता और हम लौट नहीं पाते। हमें सदैव ठहर कर निश्चित कर लेना चाहिये कि कहीं हम अपने लक्ष्य से दूर तो नहीं हो रहे हैं।
हमारा मानना है, कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए मात्र प्रेरणा की आवश्यकता होती है। जिसे वह अपने हृदय में धारण करे और उसके मन की वह धुन बन जाये। रोटी-कपड़ा-मकान तो आवश्यक है ही किंतु प्रेरणा, चेतना की वस्तु है। इसके बिना जीवन चलता तो है किंतु निर्रथक रहता है उपरोक्त कथा के निर्धन व्यक्ति के समान। अब प्रश्न उठता है कि प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हो, अधिकतर व्यक्ति अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रहते हुए अपने आस-पास धर्नाजन साधनों तक सीमित रह कर उसे ही प्रेरणा मान लेते हैं और कुछ सार्वजनिक व सामुदायिक आस्थाओं में प्रेरणा खोज लेते हैं और बहुत कम लोग ही अपनी चेतना कि जागृति से अपनी प्रेरणा को खोज पाते हैं। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हें पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में लगा दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग भारतीय दर्शन के नाम से पुकारते हैं। भारत में ‘दर्शन’ उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके। ‘तत्व दर्शन’ या ‘दर्शन’ का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृति के लिए और तत्व ज्ञान कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं, जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बन्धन में नहीं डाल सकते तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने का प्रयास किया है। इस दर्शन की शनै:-शनै: अनुभूति कराता है परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित ‘भावातीत ध्यान योग’ जिसका नियमित तथा प्रतिदिन प्रात: व संख्या के समय 15 से 20 मिनट का अभ्यास हमारे दु:खों कि निवृति का मार्ग प्रशस्त करता है। जिससे हमारा जीवन आनंद से भर जाता है। स्मरण रहे- ‘‘जीवन आनंद है।’’
।। जय गुरुदेव, जय महर्षि ।।
- 2022-01-12
जनरल रावत को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि और अगले सीडीएस से विनम्र अनुरोध की भारतीय सशस्त्र बलों के लिए एक रोकथाम विंग स्थापित करे
भोपाल [ महामीडिया] “हेयम् दुःखम् अनागतम्' एक प्रसिद्ध योग सूत्र है जिसका अर्थ है कि जो दुख अभी भविष्य में आने वाले है उसे पहले से ही रोका जाए या टाल दिया जाए।
जिस पीड़ा का हम पहले ही सामना कर चुके हैं या जिससे पहले ही गुज़र चुके हैं, वह इतनी पीड़ादायक नहीं है जितना भविष्य के दर्द का डर, जिसे समाज की सामूहिक चेतना में समरसता-सत्व और सकारात्मक ऊर्जा का अदम्य प्रभाव पैदा करके और योग और ध्यान के निरंतर अभ्यास से रोका ,टाला या कम कर सकते है।
अभी हाल ही में सीडीएस जनरल बिपिन रावत और अन्य उत्कृष्ट सैन्य अफसरों के साथ दुखद हेलीकॉप्टर दुर्घटना हुई जो रक्षा बलों और राष्ट्र के लिए एक असहनीय झटका है और अपूरणीय क्षति है। फिर भी यह घटना हमें याद दिलाती हैं और एक महत्वपूर्ण सबक देती हैं “हेयम् दुःखम् अनागतम्', जो हमें हमारे अनिश्चित जीवन और उसके अप्रत्याशित दुखों के परिणामों के बारे में सचेत करती है । अथक योगाभ्यास से जो शक्ति प्राप्त की जा सकती है, वह भविष्य में अप्रत्याशित घटनाओं को रोकने के लिए एक व्यक्ति और सामूहिक रूप से समाज को समृद्ध कर सकती है।
सीडीएस जनरल बिपिन रावत, उनकी पत्नी श्रीमती मधुलिका रावत सहित 12 अन्य लोग अपने स्वर्गीय सफ़र के लिए रवाना हो गए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना 8 दिसंबर को हुई जब उनका हेलीकॉप्टर कोयंबटूर के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया। सीडीएस जनरल रावत, 27 वें सेना प्रमुख, एक आसन्न रक्षा कर्मी जिनका एक अभूतपूर्व कैरियर था। 1958 में जन्मे जनरल ने अपने करियर की शुरुआत गोरखा राइफल्स से की थी और जल्द ही उन्हें कई शानदार सफलताएं मिलीं। वह पुलवामा और म्यांमार सर्जिकल स्ट्राइक के सूत्रधार हैं। धारा 370 के समाप्त होने के बाद संभावित अशांति से निपटने के लिए जनरल ने शांति प्रबंधन की योजना तैयार की थी । उन्हें स्वॉर्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित किया गया । एक लोकप्रिय एवं सजग वरिष्ठ सेना अधिकारी जनरल रावत आवश्यक संवेदनशील होने के साथ अपने शौर्य, व्यावहारिक दृष्टिकोण के लिए जाने जाते थे। कारगिल युद्ध, म्यांमार और पुलवामा उनके ऐसे ही कुछ वीरतापूर्ण योगदान है , फिर भी राष्ट्र के लिए उनकी सेवाओं को कम करके आँका नहीं जा सकता । राष्ट्र को बचाने और सुरक्षा के लिए उनके समर्पण और वीर कार्यों के लिए राष्ट्र सदा उनका ऋणी रहेगा ।
जनरल का व्यक्तित्व हमेशा से प्रेरक रहा है और रक्षा में उनके योगदान को देखते हुए वे हमेशा महत्वपूर्ण रहेंगे । राष्ट्र के प्रति उनके साहसिक कार्यों के प्रति हमारी हार्दिक कृतज्ञता है । सीडीएस जनरल रावत हालांकि अपने अंतिम यात्रा पर निकल चुके हैं, फिर भी उनके चयन की अद्भुत क्षमता और असाधारण कौशल से उन्होंने खुद को अमर कर लिया है।
देश के सबसे महान सैनिक को ह्रदय से सम्मान देते हुए जिन्होंने 8 दिसंबर को अंतिम सांस ली थी, हम उनकी देशभक्ति सेवाओं के लिए उन्हें प्रणाम करते हैं औरअन्य सभी सैनिकों के प्रति भी अपनी सहानुभूति और संवेदना व्यक्त करते हैं जिन्होंने अपने बहुमूल्य जीवन का बलिदान दिया है ।
महामीडिया के संरक्षक संपादक ब्रह्मचारी गिरीश जी ने कहा की "हम अगले सीडीएस को आमंत्रित करना चाहते हैं कि कृपया परम पूजनीय महर्षि महेश योगी जी के "रक्षा के पूर्ण सिद्धांत" के अनुसार “हेयम् दुःखम् अनागतम्' के सिद्धांतो के आधार पर "भारत के सशस्त्र बलों में एक निवारक विंग" स्थापित करने पर विचार करें । जिससे भविष्य में होने वाली घटनाओं को टाला जा सके और भारतीय रक्षा बलों को अजेय बनाया जा सके।"
उन्होंने आगे कहा कि वैदिक ज्ञान और इसकी व्यावहारिक प्रौद्योगिकियां भारत को अजेय बनाने के लिए सशक्त और सक्षम हैं। "महर्षि संगठन प्रतिबद्ध है और कम समय में भारतीय रक्षा बलों को अजेय बनाने की योजना प्रदान करने में हमें प्रसन्नता होगी ।"
महामीडिया संपादकीय बोर्ड
- 2021-12-13
परिवर्तन के साथ संतुलन
भोपाल (महामीडिया) एक भिक्षु एकान्त में ध्यान करना चाहते थे। वह शोर से दूर ध्यान करने के लिए नदी की ओर चले गए। वे एक नाव पर सवार हुए और नदी के बीच में आ गए। तभी उन्हें हलचल अनुभव हुई। लगा कि कोई उनकी नाव को हिला रहा है, उस पर बार-बार टक्कर मार रहा हैं उनका ध्यान टूटने लगा। वे आंखें खोलकर एक दूसरे पर क्रोधित होने ही वाले थे देखा कि सामने वाली नाव खाली है। सामने कोई होता तो क्रोध करते, पर अब क्या करें? तभी भिक्षु को अनुभव हुआ कि क्रोध, भय, बेचैनी उनके अपने भीतर है, क्योंकि दूसरी नाव तो खाली है। उनहोंने स्वयं को ठीक किया और वापस ध्यान में बैठ गए। अतः जब हर पल योजनाओं में परिवर्तन हो रहा हो, तो क्रोध आना स्वभाविक है। हमें चिंता भी होने लगती है, पर यही समय होता है, जब हमें परिवर्तन के साथ संतुलन बनाने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यकता झुंझलाने और जूझने के स्थान पर स्वयं को परिवर्तनों से जोड़ने और बहाव के साथ बहते रहने की होती है। वैदिक दृष्टिकोण हमें भय पर नियंत्रण पाने के लिए गहन अंतर्दृष्टि देता है। यह भय को गहरे रोग का लक्षण मात्र मानता है, मन की आसक्ति और आसिक्ति के विषय से संभावित हानि से भय होने के अनेक कारण है। उदाहरण के लिए संपत्ति से आसक्ति या लगाव से निध्ण्रनता का भय उत्पन्न् होता है, सामाजिक प्रतिष्ठा से आसक्ति के कारण अपयश का भय उत्पन्न होता है आदि। इसी प्रकार समृद्धि, आराम और अपनी स्वयं के जीवन से आसक्ति के कारण प्राकृतिक आपदाओं का भय उत्पन्न होता है। हम जानते हैं कि जीवन नश्वर है, फिर भी भयभीत रहते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि आत्मा अमर है। ऐसे ज्ञान पर चिंतन हमें मृत्यु के भय से ऊपर उठने में सहायता करता हैं जब हम मानसिक रूप से अपने सुरक्षित क्षेत्र में आसक्ति हरते हैं, तो अपनी परिस्थितियों एवं हमारे जीवन से जुड़ी योजनाओं के मन अनुसार परिणाम चहाते हैं, तो भय इसका स्वाभाविक परिणाम होता है। इनसे ऊपर उठने का एकमात्र उपाय हैकि हम सवश्रेष्ठ करने पर ध्यान केंद्रित करें और किसी भी परिणाम को ईश्वर की इच्छा के रूप में स्वीकार करें। जब हम हृदय से स्वीकारेंगे कि भगवान जो कुछ भी तय करते हैं, वह हमारे जीवनक े लिए सबसे अच्छा है।, तब हम नदी के समान बहना सीखेंगे तो परिणामों से आसक्ति समाप्त होगी। महाभारत युद्ध के समय, जब भीष्म पितामाह ने अर्जुन को मारने का संकल्प लिया था, तो भगवान श्रीकृष्ण व पांडव वंश के सभी लोग चिंतित हो गए थे। आधी रात में जब वे सभी अर्जुन को सांत्वना देने गए, तो अर्जुन खर्राटे ले रहे थे। जागने पर अर्जुन ने सभी को समझाया कि जब भगवान स्वयं उनकी सुरक्षा के लिए इतने चिंतित हैं, तो उन्हें भयभीत होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। भय पर विजय पाने का सबसे सरल और शक्तिशाली साधन पूर्ण विश्वास है। वह यह कि ईश्वर और गुरु हमारे साक्षी और रक्षक हैं। जैसे-जैसे हम सर्वशक्तिमान के प्रति समर्पित होते जाते हैं, हमारे समस्य भय लुप्त हो जाते हैं। हमारा मात्र एक ही मन है। भय पर चिंतन के स्थान पर परमात्मा का चिंतन करें। अकेलापन, साथियों के दबाव, आर्थिक असुरखा आदि से संबंधित आशंकायें हमें मानसिक रूप से कमजोर करती हैं, जबकि ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से हमारा उत्थान होता है। ईश्वर, दिव्य नामों, रूपों, गुणों, लीलाओं, निवासों या संतों का ध्यान करके अपने आपको भय से दूर होने के लिए प्रेरित करें। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी कहते थे कि जीवन आनन्द है। किंतु वर्तमान परिस्थितियों में मानव प्रकृतिमय न होकर भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखता है, वह यह नहीं देखता कि जो उसको ईश्वर कृपा से प्राप्त है, वही पर्याप्त है और उसमें आनन्दित रहने के स्थान पर जो उसके पास नहीं है उसकी चिन्ता करने लगता है।
।।जय गुरुदेव, जय महर्षि ।।
ब्रह्मचारी गिरीश
- 2021-12-12
आप स्वयं श्रेष्ठ हैं
प्रतिदिन हम ऐसे अनेक लोगों से मिलते हैं जो अपने बचपन की कड़वी यादों और पीड़ा को लादे हुए होते हैं। बचपन के ये कड़वे अनुभव बड़े होने पर अवसाद और तनाव में परिवर्तन जाते हैं। वैसे, बड़े होने पर हम किस प्रकार के मनुष्य बनेंगे, यह बहुत सीमा तक हमारे बचपन पर निर्भर करता भी है। प्राय: जब बचपन में किसी बच्चे की भावनात्मक आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती या उसे प्यार नहीं मिलता, तो बड़ा होने पर वह एक रूखे और एकाकी व्यक्ति में परिवर्तित होने लगता है। उन्हें अनुभव होने लगता है, कि उसके जीवन में घटने वाली प्रत्येक बुरी घटना का उत्तदायी वह स्वयं है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो उसका बचपन भी बाकी बच्चों के समान आनंद और प्यार से भरा होता। हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि बड़ों की बात मानना अच्छे होने की निशानी है और हट करना गलत बात है किंतु हम भूलने लगते हैं कि हमारा अपना भी कोई अस्तित्व, पसंद-नापसंद है। फिर, हमारा बस एक उद्देश्य रह जाता है कि दूसरों को कैसे प्रसन्न रखा जाए और इस प्रयास में हम अपनी इच्छाओं को खोने लगते हैं। परिणाम, प्रसन्न रहने के स्थान पर हमारा अंतर्मन रिक्त होने लगता है। जब लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहती है, तो हम स्वयं से ही कटने लगते हैं। यह भूल जाते हैं कि दूसरों से पहले स्वयं की संतुष्टि आवश्यक है। जब कोई व्यक्ति अपने आप को पीछे रखकर दूसरों को प्रसन्न करने को प्राथमिकता देने लगता है, तो धीरे-धीरे उसका मन और व्यक्तित्व दो भागों में बंट जाते हैं। एक भाग वह जो दूसरों के सामने उनके कानों सुहाती बातें करता है और व्यक्तित्व का दूसरा वह भाग वह जो जानता है कि ऐसा करने पर उसे प्रसन्नता नहीं मिल रही पर दूसरों की नाराजगी के भय से वह स्वयं को कभी प्रकट नहीं कर पाता। इस स्थिति में फंसा हुआ व्यक्ति वास्तव में दुविधा का सामना कर रहा होता है, क्योंकि उसके अंतर्मन के अच्छे और बुरे में चल रहा द्वंद मानसिक शांति को भंग करने लगता है। परिणाम, अकेलापन, आत्मविश्वास की कमी और स्वयं को किसी योग्य न समझने जैसे भाव मन में घर करने लगते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या दूसरों की प्रसन्नता के लिये स्वयं को मारना आवश्यक है? क्या अपनी बात या अपने विचार दूसरों के सामने रखना विद्रोह कहलाता है? और यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर न में है तो ऐसा क्या किया जाए कि हम इस मनोस्थिति से बाहर निकल सकें? कभी न बोलने वाला व्यक्ति जब दृढ़ता से अपनी बात रखता है, तो जितनी कठिनाई सामने वाले के लिए यह पाच्य करना होता है, उतना कठिन उस व्यक्ति के लिए अपनी बात रखना भी होता है। असल में, वह नहीं जानता कि सदैव दूसरों की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के उसके व्यवहार को पसंद करने वाले लोग कहीं उसे विद्रोही तो समझने नहीं लगेंगे। पर यदि एक बार आपने अपनी बात दृढ़ता से रखने का विश्वास कर लिया तो सच मानिए, आपके मन को दृढ़ता तो मिलेगी ही, अपने अस्तित्व के होने का जो अनुभव होगा, वह अतुलनीय होगा। जीवन की कड़वी सच्चाई है कि आप सबको संतुष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है कि आपकी कोई विशेषता किसी को अवगुण लगती हो या आपका कोई अवगुण (आदत) किसी को बहुत भाता हो। जैसे, यदि कोई अधिक लंबा है तो भी उस पर तंज कसा जाता है, और कोई नाटे कद का है, तो लोग उसका भी हास्य बनाते हैं पर फिर भी प्राय: हम दूसरों के प्रति अपनी राय से बहुत अधिक प्रभावित हो जाते हैं। इन बातों से परेशान होने से श्रेष्ठ यह है कि जैसे हैं, वैसे ही रहें। किसी अस्थाई प्र्रसन्नता के लिए स्वयं को न बदलें। ‘दुसरों की प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है’, यह सुनने में अच्छा लगता है, पर इस बात को अपने मूल जीवन में उतार लेने का विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसा करने से आपकी मानसिक शांति तो भंग होती ही है अन्य लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ती जाती हैं। इसलिए स्वयं को महत्वपूर्ण समझने से न हिचकें और न ही कभी अपनी आवश्यकताओं की उपेक्षा करें। जब आप स्वयं को आवश्यक समझेंगे, तभी अपना ध्यान रख पाएंगे और प्रसन्न भी रह पाएंगे। लम्बे समय से परेशान व्यक्ति धीरे-धीरे स्वयं पर से ही विश्वास खोने लगता है, क्योंकि कभी-कभी संकट की घड़ी इतनी लंबी लगने लगती है कि व्यक्ति अपना साहस खोने लगता है। दूसरों की राय पर चलना उसकी मजबूरी बन जाती है किंतु स्वयं पर विश्वास मजबूत हो, तो स्थिति को संभाला जा सकता है। याद रखिए, हमारा स्वयं पर विश्वास ही हमारी वास्तविकता का निर्माण करता है। हमारा आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति हमारे सपनों को मूर्त रूप देने का कार्य करती है। किसी भी स्थिति में स्वयं पर से विश्वास को डिगने न दें। हमें स्वयं के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। हम अपने जीवन का बड़ा भाग, हम जो होना चाहते हैं या फिर हमसे, हमारे अपने या दूसरे लोग जो होने की आशा करते हैं, हम यह जीवन उसकी चिंता में बिता देते हैं। हमें स्वयं को सिद्ध करने या अपने साथ वालों को पीछे छोड़ने की होड़ में पड़ने की आवश्कता ही नहीं है। हम बस अपना सर्वश्रेष्ठ कर सकें, यही प्रयास बहुत है। धीरे-धीरे हम जान जाते हैं कि हर कोई अपने ढंग से श्रेष्ठ है। आपको, अपने सोचने, समझने एवं परिस्थितियों को भापने कि गति को और गति देनी होगी। तभी हमारी मानसिक क्षमता को तीव्र एवं तीक्ष्ण किया जा सकता है। इसका बहुत सरल एवं सुरक्षित उपाय है भावातीत ध्यान योग का नियमित प्रात: एवं संध्या में 15 से 20 मिनट का अभ्यास जो आपके जीवन लक्ष्य तक पहुंचने में आपकी सहायता करेगा।
- 2021-11-29
भावातीत ध्यान और कर्मयोग
कर्म के संबंध में भारतीय सिद्धांत है कि सर्र्वसमर्थ होकर कर्म करो। सारी दैवीय शक्ति को अपने साथ में लेकर, सारे दैवीय तत्व को अपनी चेतना में जागृत करके कर्म करने का विधान है और यही भारतीय कर्म का विधान है। एकहि साधे सब सधे। यह हमारे भारत की कर्म करने की कुंजी है। एक-एक तत्व को साध लिया, एक वस्तु को साध लिया। वो कौन सी वस्तु को साध लिया? वो सर्वशक्तिमान दैवीय सत्ता को अपनी चेतना में जागृत कर लिया। कार्य करने का यह हमारा भारतीय विधान है। गीता कर्म का एक ऐसा शास्त्र है जिसने एक बहुत बडेÞ योद्धा के हृदय में, (अर्जुन के हृदय में) जो एक शंका उत्पन्न हुई, अर्जुन को विशाद हो गया, उस विशाद को नष्ट करके जितने बंधनों में उसकी चेतना फँस गयी थी, उन सब बंधनों को तोड़कर, उसको निर्बंध करके अर्जुन को विजयी और कर्मठ बनाया। गीता वो शास्त्र है जिसमें कर्म का उपदेश प्रत्येक व्यक्ति के लिए है। चाहे उसकी चेतना कितनी भी कुंठित क्यों न हो गयी हो। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सफलता का उपाय, सरलता से देते हैं और इतनी सरलता से देते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। व्यक्ति का जो सहज स्वभाव है, कहते हैं अपने सहज स्वभाव में आ जाओ, कर्म करो। इसलिए कि सहज स्वभाव जो व्यक्ति का है, व्यक्ति की जो सहज चेतना है, वो शुद्ध चेतना सारे दैवीय जगत का निवास क्षेत्र है। इसीलिए भगवान ने कहा कि उस शुद्ध चेतना को, उस सहज चेतना को प्राप्त करो और फिर कार्य करो। योगस्थ कुरू कर्माणि। योगस्थ होकर कार्य करो, योगस्थ होकर अर्थात् मन को अपनी आत्मा में मिला कर अर्थात् मन की जो हलचल है, उस हलचल को शांत करके, वही आत्मचेतना हो जाती है। वही शुद्ध चेतना हो जाती है उसी के लिए भगवान ने कहा निस्त्रैगुण्योभव जिस क्रियावान मन की चेतना में क्रिया शांत होकर अपने सहज स्वभाव में आती है, उसमें कोई क्रिया नहीं रहती, वो तीनों गुणों के परे रहती है। सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण तीनों के परे जाकर वो एक नित्य शाश्वत सनातन सत्ता और वही यस्मिंन्देवा अधि विश्वे निषेदु: ऋग्वेद कहते हैं, उसमें समस्त दैवीय जगत का निवास है और भगवान ने बताया गीता में देवी समपत विमोक्षाय तो वो दैवीय सम्पतवान अपनी चेतना कार्य बन जायेगी, इसलिए कि वो तुम्हारी अपनी सहज स्वाभाविक चेतना है। सहज स्वाभाविक चेतना तुम्हारी वही है। तभी भगवान ने कहा प्रत्यवायो न विद्यते गीता में कि उसको वो यौगिक चेतना प्राप्त करने के लिए अर्जुन वो ‘‘शाश्वत् अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’’ अपने भीतर जो आत्म तत्व है, जो आज है, तत्त्व है, अजर है, अमर है, अविनाशी है और वो सहज रूप से अपने ही स्वरूप में आने में कोई भी प्रत्यवाय नहीं है, कोई अड़चन नहीं है। जरा भी अगर अपना चंचल मन उस शांत चेतना से परिचित होता रहेगा तो वह बड़े-बडेÞ भय से, बड़े-बड़े बंधनों से मोक्ष कर देगा और फिर यह शुद्ध चेतना पर भगवान ने क्यों इतना जोर दिया है? दो कारण हैं, इसलिए कि वो हर एक की सहज चेतना है, सहज रूप से आ जाती है। उस चेतना में बैठकर जब कार्य करेंगे तो, क्योंकि वो चेतना सारे दैवीय जगत का आधार है। ऋग्वेद के अनुसार, जो भी संकल्प उठेंगे, इच्छा होंगी वो सब दैवीय जगत से पोषित होंगी। दैवीय जगत से पोषित होकर सारा विश्व ब्रह्मांड चल रहा है। जब अपनी चेतना उस दैवीय जगत से संबंधित होगी तो हमारे लिए कुछ कठिन नहीं रह जायेगा। मनुष्य अनंत शक्ति संपन्न होकर फिर कार्य क्षेत्र में उतरे। यह अपने कर्मयोग की प्रणाली है, भारत में कर्म करने का विधान है। भारत तो एक पूर्ण भूमि है। वेद भूमि है, ज्ञान भूमि है। तो यहाँ कर्म करने का जो ज्ञान दिया वो इतने सरल साधन से सर्व समर्थ बनाया कि अपने सहज स्वभाव को लेकर सारी प्रकृति पर मनुष्य राज कर सकता है।
यह भारतीय कर्म विज्ञान है। वेद के अनुसार, शास्त्र के अनुसार कर्म करने का जो विधान है, वो योगस्थ: कुरु कर्माणि। बैंक जाकर बाजार में जाओ, बैंक जाकर एक कुशल व्यापारी जब अपने लड़के को व्यापार में भेजता है तो पहले उसको बैंक से परिचित कराता है। कहते हैं बैंक चले जाया करो फिर बाजार चले जाया करो। फिर तुम्हारे लिए बाजार सदैव सुखदायी होगा। जब तक आत्म तत्व से अपना मन मिला नहीं है और आत्म तत्व से मन के मिलने का अर्थ क्या है? चंचल मन शांत हो जाये बस। जैसे लहरें उठ रही हैं समुद्र में और वो लहरें बैठ जायें और समुद्र शांत हो जाये तो शांत समुद्र का नाम आत्मा हो गया, लहर का नाम मन हो गया तो मन इसलिए उठता है कि आनंद की ओर चलें। आत्मा अनंत आनंद का रूप है इसलिए भावातीत ध्यान की युक्ति से मन सरलता से अपने आप में बैठकर आत्म स्वरूप हो जाता है और जहाँ आत्म स्वरूप हुआ, शुद्ध चेतना आई, भावातीत चेतना आई, तुरीय चेतना आई, तो जितना शास्त्रों में तुरीय चेतना के संबंध में विस्तार से उसका महत्व गाया है वो सारा का सारा महत्व अपने जीवन में उतर आता है। यह भारतीय कर्म करने का विधान है। इसका रहस्य यह है कि जब मन शांत होता है तो चेतना पूर्ण रूप से अव्यक्त होती है। अव्यक्त चेतना में रहकर जो कार्य करेंगे, जो ऋग्वेद ने कहा कि उस अव्यक्त चेतना के क्षेत्र में सारे देवी-देवताओं का निवास है तो उसको ऐसा समझना चाहिए जैसे फूल में लाल है, हरा है, इधर पत्ती है, डंडी है। इसकी सारी सत्ताएँ लाल की सत्ता और यह पत्ता और यह फल-फूल-डाली यह सब कैसे उत्पन्न होती है? यह उत्पन्न होती है, रस के क्षेत्र में कुछ कार्य हो रहा है और वो कार्य पत्ते के रूप में प्रकट हो रहा है, पंखुड़ी के रूप में प्रकट हो रहा है, लाल रंग के रूप में प्रकट हो रहा है, हरे रंग के रूप में प्रकट हो रहा है। लेकिन कार्य कहाँ हो रहा है? कार्य हो रहा है, बिना लाल रंग के, बिना हरे रंग के रस में, वो रस जहाँ जो निर्गुण है, निराकार है, कोई आकार नहीं, पत्ते का आकार नहीं, कोई उसका रंग नहीं। उस रंगरूप रहित रस के क्षेत्र में कुछ क्रिया हो रही है वो क्रिया सर्वसमर्थ है। इसलिए कि वो क्रिया हरा पत्ता भी बना सकती है। उस क्रिया में कुछ परिवर्तन, कुछ ऐसा हुआ, विशिष्टता आई, तो वो क्रिया लाल पंखुड़ी बनाने लगी, वो क्रिया सुगंधी बनाने लगी, वो क्रिया डंठल बनाने लगी। जो कुछ भी व्यक्त रूप से प्रकट हो रहा है वो अव्यक्त क्षेत्र की क्रिया का परिणाम है। सारे विश्व ब्रह्मांड में जितना कर्म हो रहा है, जितनी क्रियाएँ हो रही हैं, सृष्टि की व्यापक क्रियाएँ, सारी क्रियाएँ, वो अव्यक्त क्षेत्र में जो दैवीय सत्ता है उसमें क्रिया होने से, दैवीय सत्ता क्रियावान होने से, अव्यक्त क्षेत्र में दैवीय सत्ता क्रियावान होने से सारे विश्व ब्रह्मांड की सारी क्रियाएँ चल रही हैं। समस्त विश्व ब्रह्मांड में जो कर्म चल रहे हैं उन सारे कर्मों का बीज रूप से आधार है, वो अव्यक्त नित्य सनातन अखंड शाश्वत सत्ता और वो सत्ता आत्मसत्ता है।
जब मन अपनी तरंगों में होता हुआ सूक्ष्मता में जाकर सूक्ष्म रूप से, तरंग रहित होता है, तो मन वो अव्यक्त निर्गुण-निराकार सत्ता स्वरूप होता है, आत्मस्वरूप होता है और उस चेतना में हल्का सा स्पंदन भी सारे विश्व ब्रह्मांड के सारे कर्मों का बीज रूप होता है। कर्मों का यह जल रूप, जैसे जल में जितनी क्रिया हो रही है, उसी क्रिया के द्वारा ये सारे पत्ते, फल, डाली, जैसे रस में क्रिया हो रही है। अव्यक्त क्षेत्र में क्रिया हो रही है, वही क्रिया सारे व्यक्त क्षेत्र के कर्मों का आधार है।
- 2021-10-21
जीवन यात्रा का सहयात्री
परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी सदैव कहते थे जीवन संघर्ष नहीं ‘‘जीवन आनंद है।’’ जीवन को संघर्ष मानना पश्चिमी सोच है। भारतीय सनातन परंपरा जीवन को एक उत्सव मानती है। जीवन में कुछ भी व्यर्थ नहीं है सभी में कुछ न कुछ अर्थ है। आपका व्यवहार ही आपको संघर्ष या उत्सव में धकेलता है। यदि जीवन को आप संघर्ष समझेंगे तो संघर्ष बन जाएगा और यदि इसे खेल भावना से लेंगे तो यह उत्सव बन जाएगा। दूसरा यह कि उनके लिए जीवन एक संघर्ष है जो उन वस्तुओं के बारे में सोचते रहते हैं जो उनके पास नहीं है जबकि उनके लिए उत्सव जो यह सोचते हैं कि मेरे पास जो है उसका कितना आनंद ऊठाएं। एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा- ‘गुरुजी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव मानते हैं। अत: इनमें से सही कौन है?’ गुरुजी ने कहा, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने लगते हैं, उनके लिए जीवन एक उत्सव है। शिष्य को गुरुजी का यह साधारणसा उत्तर समझ में नहीं आया और वह इससे संतुष्ट नहीं हुआ तो गुरुजी ने एक कहानी सुनाई। एक बार किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों ने अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरुजी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरुजी पहले तो मन ही मन मुस्कराए और फिर बोले- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ यह सुनकर वह तीनों प्रसन्न हो गए, क्योंकि उन्हें लगा कि ये बड़ा ही सरल कार्य है। अब वे तीनों शिष्य पास के ही एक जंगल में पहुंच गए। परंतु यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि यहां तो सूखी पत्तियां मात्र एक मुट्ठी भर ही हैं। वे सोच में पड़ गए कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? सूखी पत्तियां का भला क्या उपयोग? तभी उन्हें दूर से एक किसान आता दिखाई दिया। वे उसके पास पहुंचकर याचना करने लगे कि वह उन्हें मात्र एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दें। उस किसान से क्षमा मांगते हुए कहा कि मैं आप लोगों की सहायता नहीं कर सकता क्योंकि सूखी पत्तियों को र्इंधन और खाद के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया गया है। यह सुनकर वे तीनों पास के एक गांव में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा और उससे थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे परंतु व्यापारी ने उसके पास सूखी पत्तियां होने से मना कर दिया और कहा कि वो तो मैंने कभी की बेच दी। फिर भी उस व्यापारी ने कहा कि मैं जानता हूं उस बूढ़ी मां को जो जंगल से सूखी पत्तियां बीनकर लाती हैं। हो सकता है कि उसके पास हो। तीनों उस बूढ़ी मां के पास गए जो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की औषधियां बनाया करती थीं। उसने भी इनकार कर दिया और कहा कि यह तो औषधियां बनाने के लिए है। वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। वे निराश होकर खाली हाथ गुरुकुल लौट आए। गुरुजी ने उन्हें देखते ही पूछा- ‘ले आए गुरुदक्षिणा?’ तीनों ने सिर झुका लिया। गुरुजी के फिर से पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य बोला- ‘गुरुदेव! हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाए। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही होंगी परंतु बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी प्रकार से उपयोग करते हैं। गुरुजी फिर पहले ही के समान मन ही मन मुस्कराए और बोले- निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं, मुझे गुरु दक्षिणा के रूप में दे दो। तीनों शिष्य गुरुजी को प्रणाम करके प्रसन्न होकर अपने-अपने घर चले गए। वह शिष्य जो गुरुजी की कहानी सुन रहा था। बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी, अब मुझे आपकी बात समझ में आई कि आप क्या कहना चाहते हैं। आपका संकेत, वस्तुत: इसी ओर है कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मानकर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? जीवन में हमारे पास जो है हम उसका आनंद ले सकते हैं जबकि कुछ लोग उनके पास जो नहीं है उसके बारे में सोचकर ही व्यथित होते रहते हैं। गुरुजी भी तुरंत बोले- ‘हां, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें जिससे आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। हमारा निर्णय हमारी चेतना पर आधारित होता है किन्तु जीवन में हम अधिकतर निर्णय चेतना की सुप्तावस्था में करते हैं। अत: चेतना को जागृत रखने के लिये नियमित रूप से प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या को ‘‘भावातीत-ध्यान-योग’’ का 10 से 15 मिनट अभ्यास आवश्यक है। यह हमारे जीवन संघर्ष की सोच को ‘‘जीवन आनंद है।’’ में परिवर्तित कर हमारे जीवन को आनन्द से भर देगा।
जय गुरुदेव, जय महर्षि।
- 2021-10-18
वास्तविकता और हम
मनुष्य का प्रमुख लक्ष्य है जीवन आनंदमय हो, इसी को प्राप्त करने के लिए हम भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं। अंतत: उनको पाकर हम प्रसन्न नहीं हो पाते, क्योंकि सुख का भाव तो भौतिक है और आनंद का भाव तो आध्यात्मिक है। जब आप स्वयं को श्रैष्ठ जीवन और प्रसन्नताओं को प्राप्त करने के लिए तैयार कर लेते हैं तो स्वत: ही सब अच्छा होने लगता है। पर कुछ भी पाने के लिए सबसे पहले अपनी सोच के मार्गों की बाधाओं को दूर करना पड़ता है। हम सब सुनते आए हैं कि मनुष्य अपनी गलतियों से ही सीखता है। वैसे यह सही भी है। बिना ठोकर खाए, अगर सब कुछ बस ऐसे ही मिलता जाए तो उसका महत्व समाप्त हो जाता है। किंतु यह सिक्के का मात्र एक ही पहलू है, जबकि दूसरा पहलू हमें यह बताता है कि ठोकरें खाने के बाद यह बहुत आवश्यक है कि आप स्वयं से प्रेम करें और इस बात को स्वीकारें कि आप अपने जीवन में और अधिक श्रैष्ठ प्रसन्नताओं के अधिकारी हैं। आकर्षण का नियम है कि जब आप स्वयं को श्रैष्ठ जीवन, खुशियों और अनुभवों का अनुभव करने के लिए तैयार कर लेते हैं तो सब कुछ स्वयं अच्छा होने लगता है। किंतु इसकी पहली शर्त है, अपने आस-पास से नकारात्मकता को हटाना और जो भी मानसिक बाधाएं आपको आगे बढ़ने से रोकती हैं, उन्हें अपने से दूर कर देना। जिस प्रकार शांत जल में पत्थर फेंकने से उसमें हलचल होने लगती है, ठीक उसी प्रकार कभी-कभी जीवन में लगी एक ठोकर किसी व्यक्ति का जीवन बदल सकती है। बस आवश्यक यह है कि उस ठोकर को एक बुरी घटना के समान लेने के स्थान पर एक सीख के समान लिया जाए। जीवन में हुई कोई घटना इस बात का सूचक होती है कि यह परिवर्तन का समय है। जो व्यक्ति इन घटनाओं से घबराकर घुटने नहीं टेकता, वो आगे एक श्रैष्ठ जीवन के मार्ग पर चल पड़ता है और जो लोग इन घटनाओं को अपनी नियति मान लेते हैं, वे बस वहीं रुक जाते हैं। उतार-चढ़ाव तो हम सबके जीवन में आते हैं, बस उनका रूप अलग-अलग होता है। किसी के लिए उसका कोई प्रियजन खो देना एक बहुत बड़ी घटना है तो किसी की नौकरी चले जाना उसके जीवन का सबसे बड़ा दु:ख हो सकता है। पर समझदार वही है जो ऐसे नाजुक परिस्थिति में अपना विवेक नहीं खोता और इन घटनाओं से सीख लेते हुए आगे की ओर कदम बढ़ाने का प्रयास करता रहता है। प्राय: हम दु:ख के क्षणों में स्वयं को अत्यंत कमजोर और लाचार समझने लगते हैं। किंतु ऐसा करने के स्थान पर निराशा के क्षणों में हम मजबूती और धैर्य से काम लें तो बात बन सकती है। आकर्षण का नियम भी यही कहता है कि मजबूत सोच आपके स्वप्नों को सच में बदल सकती है। तो फिर नकारात्मक और दु:खद बातें सोचने की आवश्यकता ही क्या है? जबकि हम जानते हैं कि इससे मात्र तनाव प्राप्त होगा। तो क्यों न अपनी सोच को सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर दिशा दी जाए। इसका सबसे सरल उपाय है, सदैव अपनी गलतियों से सीख लेना, जिससे भविष्य में वो गलतियां पुन: न हो। जब हम ऐसा करना प्रारंभ कर देंगे तो आप पाएंगे कि प्राय: हमारे जीवन में गलतियों जैसा कुछ होता ही नहीं है। क्योंकि हम प्रत्येक समय कुछ नया सीख रहे होते हैं। उदाहरण के लिए हमें अपने आस-पास और कार्यालय में प्राय: ऐसे लोग मिलते रहते हैं, जिनके साथ हमारा तालमेल नहीं बैठ पाता। प्रयास करने से भी उनसे हमारी नहीं बनती। किंतु इस बात से दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसे लोगों को एक सबक के समान लेकर उनसे आप दूरी बनाकर रख सकते हैं। जब हम समान सोच-विचार वाले लोगों के साथ रहते हैं, तो हमारे आगे बढ़ने के अवसर बहुत बढ़ जाते हैं क्योंकि ये लोग हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जब हम पुरानी बातों को पीछे छोड़ देते हैं तो आगे बढ़ने के मार्ग अपने आप बनने लगते हैं क्योंकि दु:खद यादें ऐसी बेड़ियों के समान होती हैं, जो हमें जकड़े रखती हैं। इसलिए बीते कल की नकारात्मक यादों को भुला कर आगे बढ़ने में ही भलाई है। देखिये, भविष्य में क्या होगा यह कोई नहीं जानता किंतु फिर भी हम एक विश्वास के साथ अपने अच्छे कल की कामना करते हैं। पर अतीत की पीड़ादायी यादें प्राय: हमारे आने वाले कल को भी प्रभावित करने लगतीं हैं, तो फिर ऐसी यादों को संजोकर रखने का भला क्या लाभ? कहते हैं कि समय एक बहुत प्रभावशाली उपचार होता है। यह सत्य है, क्योंकि दु:ख चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, धीरे-धीरे कम हो ही जाता है। इसलिए बीते हुए समय में स्वयं को बांधकर न रखें। क्या पता आने वाला कल कुछ उससे भी श्रैष्ठ समय आपके लिए लेकर आ रहा हो। उसके लिए स्वयं को तैयार रखना आवश्यक है। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी कार्य को करने के लिए आपका हृदय आज्ञा न दे रहा हो, किंतु फिर भी आपने वह कार्य किया हो और फिर बाद में आपने अच्छा अनुभव न किया हो? जी हां, ऐसा प्राय: हम लोगों के साथ होता है क्योंकि जीवन में लिए जाने वाले कुछ निर्णय हमारे अंतर्मन के निर्णय पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है कि कोई संबंध या कोई परिचित मात्र अपने लाभ के लिए ही आपका उपयोग कर रहा है। आपका हृदय तो कहता है कि ये गलत है, किंतु अगर फिर भी आप इस बात पर ध्यान नहीं देते तो धीरे-धीरे मानसिक तनाव और चिंताएं आपको घेरने लगती हैं। इसलिए कहा जाता है कि सदैव उन लोगों के साथ चलें जो आपको आगे बढ़ता देख प्रसन्न हों और आपको और अधिक श्रैष्ठ करने की प्रेरणा दे सकें। आप यह भी कह सकते हैं कि हमारा अंतर्मन एक ऐसा आईना होता है, जो झूठ नहीं बोलता और वास्तविकता से हमारा परिचय कराता है। हम सभी एक अच्छा और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं और इसके लिए जीवनभर प्रयास करते हैं। भावातीत-ध्यान-योग-शैली का नियमित रूप से प्रात: एवं संध्या 10 से 15 मिनट का अभ्यास आपकी आतंरिक शक्ति को सामर्थ्य प्रदान करता है और जीवन को आनंदित बनाता है क्योंकि ‘जीवन आनंद है।’
- 2021-09-07