इच्छा से मुक्ति

भोपाल (महामीडिया) एक व्यक्ति लंबे समय से प्रभु साधना में रत था। अचानक एक दिन एक देवदूत उसके पास आ गया। देवदूत ने कहा, 'आपकी प्रार्थनाएँ स्वीकार्य कर ली गई हैं। देव, आपसे प्रसन्न है। आप उनसे कुछ भी वरदान माँग सकते हैं, आपकी इच्छा तुरंत पूरी कर दी जाएगी।' व्यक्ति यह सुनकर अश्चर्य चकित हो गया। थोड़ा सोचकर बोला, 'आपने आने में देर कर दी। जब मुझे वस्तुओं की इच्छा थी, तब आप नहीं आए और अब जब मेरी कोई इच्छा ही नहीं रही, मैंने स्वयं को स्वीकार कर लिया है, मैं स्वयं के साथ सहज हो गया हूँ, अत: मैं प्रतिक्षण प्रार्थना करता हूँ, इसलिए नहीं कि मुझे अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी है, बस इसलिए कि मुझे ऐसा करना अच्छा लगता है। मेरी प्रार्थनाएँ अब किसी प्राप्ति के लिए नहीं करता हूँ।' जैसे मैं सांस लेता हूँ, वैसे ही साधना करता हूँ।' इस पर देवदूत ने कहा, 'यह तो अपमान होगा। अगर भगवान वरदान माँगने के लिए कह रहे हैं तो आपको माँगना ही होगा।' व्यक्ति सोच में पड़ गया और बोला 'मैं क्या माँगू? क्या आप कुछ सुझाव दे सकते हो? मैंने सब कुछ स्वीकार कर लिया है, मैं अब स्वयं को पूर्ण अनुभव करता हूँ। आप प्रभु को कह सकते हैं कि मेरे इस अनुभव के लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। यह भाव बहुत सुंदर है। अब कोई कमी नहीं है।' देवदूत जिद पर अड़ा रहा। वह बोला, 'नहीं, आपको कुछ माँगना ही होगा। यह एक प्रकार का नियम है, जिसका पालन करना चाहिए। आप इस बात को भी समझो।' तब व्यक्ति ने कहा, 'यही बात है तो भगवान को कहिए जिस प्रकार मैं अभी इच्छारहित हूँ, मेरे भीतर यही भाव सदैव बने रहें।' यह कथा पड़ना सरल है किंतु इच्छा रहित होना अत्यंत कठिन होता है। किंतु जिस प्रकार उपरोक्त कथा में साधनरत व्यक्ति किसी इच्छा की पूर्ती के लिये साधना करता है। संभवत: साधना करते-करते उसकी चेतना जागृत हो गई हो और उसे आभास हुआ हो कि अब उपरोक्त इच्छा की उसे आवश्यकता नहीं है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहते हैं, कि इस संसार में कर्म के अतिरिक्त सभी कुछ 'माया' है और गुरुदेव शंकराचार्य श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी का प्रिय भजन है, जो यह कहता है कि माया सभी को ठग लेती है। अत: इच्छा तो मात्र प्रभुभक्ति की होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि आप कोई इच्छा रखते हों, तो आप अंत में स्वयं को ठगा हुआ सा अनुभव करेंगे। सनातन परंपरा में धन, सम्पदा का सर्वश्रेष्ठ उपयोग दान बताया है, क्योंकि संग्रह व उपभोग तो हमारी इच्छाओं को बढ़ाता है और यदि हम ययाती सा अंत नहीं चाहते तो अपनी इच्छाओं को भी दान कर उससे मुक्ति पा ले। अनेक ग्रंथों में दान की गई वस्तु के बदले में इस जन्म में या अगले जन्म में फल प्राप्ति का भी विवरण मिलता है, जैसे कि अमुक वस्तु दान करने से अमुक फल कि प्राप्ति होती है। किंतु जिस प्रकार धु्रव, प्रहलाद, माता शबरी ने इच्छाओं की त्याग कर बैकुण्ठ धाम में अपना स्थान बनाया और प्रभु की भक्ति प्राप्त की वो धन्य हो गये, इसी प्रकार इच्छा मुक्ति की कठिन यात्रा में आपकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने भावातीत ध्यान योग शैली का प्रतिपादन किया। जिसका प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या के समय 15 से 20 मिनट का नियमित अभ्यास आपकी इच्छा मुक्ति यात्रा में आपकी सहायता करते हुए आपको इच्छारहित बनाते हुए परमब्रह्म के दर्शन से आनंदित कर देगा क्योंकि जीवन आनंद है।

।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
 

- ब्रह्मचारी गिरीश

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