कर्म के संबंध में भारतीय सिद्धांत है कि सर्र्वसमर्थ होकर कर्म करो। सारी दैवीय शक्ति को अपने साथ में लेकर, सारे दैवीय तत्व को अपनी चेतना में जागृत करके कर्म करने का विधान है और यही भारतीय कर्म का विधान है। एकहि साधे सब सधे। यह हमारे भारत की कर्म करने की कुंजी है। एक-एक तत्व को साध लिया, एक वस्तु को साध लिया। वो कौन सी वस्तु को साध लिया? वो सर्वशक्तिमान दैवीय सत्ता को अपनी चेतना में जागृत कर लिया। कार्य करने का यह हमारा भारतीय विधान है। गीता कर्म का एक ऐसा शास्त्र है जिसने एक बहुत बडेÞ योद्धा के हृदय में, (अर्जुन के हृदय में) जो एक शंका उत्पन्न हुई, अर्जुन को विशाद हो गया, उस विशाद को नष्ट करके जितने बंधनों में उसकी चेतना फँस गयी थी, उन सब बंधनों को तोड़कर, उसको निर्बंध करके अर्जुन को विजयी और कर्मठ बनाया। गीता वो शास्त्र है जिसमें कर्म का उपदेश प्रत्येक व्यक्ति के लिए है। चाहे उसकी चेतना कितनी भी कुंठित क्यों न हो गयी हो। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सफलता का उपाय, सरलता से देते हैं और इतनी सरलता से देते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। व्यक्ति का जो सहज स्वभाव है, कहते हैं अपने सहज स्वभाव में आ जाओ, कर्म करो। इसलिए कि सहज स्वभाव जो व्यक्ति का है, व्यक्ति की जो सहज चेतना है, वो शुद्ध चेतना सारे दैवीय जगत का निवास क्षेत्र है। इसीलिए भगवान ने कहा कि उस शुद्ध चेतना को, उस सहज चेतना को प्राप्त करो और फिर कार्य करो। योगस्थ कुरू कर्माणि। योगस्थ होकर कार्य करो, योगस्थ होकर अर्थात् मन को अपनी आत्मा में मिला कर अर्थात् मन की जो हलचल है, उस हलचल को शांत करके, वही आत्मचेतना हो जाती है। वही शुद्ध चेतना हो जाती है उसी के लिए भगवान ने कहा निस्त्रैगुण्योभव जिस क्रियावान मन की चेतना में क्रिया शांत होकर अपने सहज स्वभाव में आती है, उसमें कोई क्रिया नहीं रहती, वो तीनों गुणों के परे रहती है। सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण तीनों के परे जाकर वो एक नित्य शाश्वत सनातन सत्ता और वही यस्मिंन्देवा अधि विश्वे निषेदु: ऋग्वेद कहते हैं, उसमें समस्त दैवीय जगत का निवास है और भगवान ने बताया गीता में देवी समपत विमोक्षाय तो वो दैवीय सम्पतवान अपनी चेतना कार्य बन जायेगी, इसलिए कि वो तुम्हारी अपनी सहज स्वाभाविक चेतना है। सहज स्वाभाविक चेतना तुम्हारी वही है। तभी भगवान ने कहा प्रत्यवायो न विद्यते गीता में कि उसको वो यौगिक चेतना प्राप्त करने के लिए अर्जुन वो ‘‘शाश्वत् अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’’ अपने भीतर जो आत्म तत्व है, जो आज है, तत्त्व है, अजर है, अमर है, अविनाशी है और वो सहज रूप से अपने ही स्वरूप में आने में कोई भी प्रत्यवाय नहीं है, कोई अड़चन नहीं है। जरा भी अगर अपना चंचल मन उस शांत चेतना से परिचित होता रहेगा तो वह बड़े-बडेÞ भय से, बड़े-बड़े बंधनों से मोक्ष कर देगा और फिर यह शुद्ध चेतना पर भगवान ने क्यों इतना जोर दिया है? दो कारण हैं, इसलिए कि वो हर एक की सहज चेतना है, सहज रूप से आ जाती है। उस चेतना में बैठकर जब कार्य करेंगे तो, क्योंकि वो चेतना सारे दैवीय जगत का आधार है। ऋग्वेद के अनुसार, जो भी संकल्प उठेंगे, इच्छा होंगी वो सब दैवीय जगत से पोषित होंगी। दैवीय जगत से पोषित होकर सारा विश्व ब्रह्मांड चल रहा है। जब अपनी चेतना उस दैवीय जगत से संबंधित होगी तो हमारे लिए कुछ कठिन नहीं रह जायेगा। मनुष्य अनंत शक्ति संपन्न होकर फिर कार्य क्षेत्र में उतरे। यह अपने कर्मयोग की प्रणाली है, भारत में कर्म करने का विधान है। भारत तो एक पूर्ण भूमि है। वेद भूमि है, ज्ञान भूमि है। तो यहाँ कर्म करने का जो ज्ञान दिया वो इतने सरल साधन से सर्व समर्थ बनाया कि अपने सहज स्वभाव को लेकर सारी प्रकृति पर मनुष्य राज कर सकता है।
यह भारतीय कर्म विज्ञान है। वेद के अनुसार, शास्त्र के अनुसार कर्म करने का जो विधान है, वो योगस्थ: कुरु कर्माणि। बैंक जाकर बाजार में जाओ, बैंक जाकर एक कुशल व्यापारी जब अपने लड़के को व्यापार में भेजता है तो पहले उसको बैंक से परिचित कराता है। कहते हैं बैंक चले जाया करो फिर बाजार चले जाया करो। फिर तुम्हारे लिए बाजार सदैव सुखदायी होगा। जब तक आत्म तत्व से अपना मन मिला नहीं है और आत्म तत्व से मन के मिलने का अर्थ क्या है? चंचल मन शांत हो जाये बस। जैसे लहरें उठ रही हैं समुद्र में और वो लहरें बैठ जायें और समुद्र शांत हो जाये तो शांत समुद्र का नाम आत्मा हो गया, लहर का नाम मन हो गया तो मन इसलिए उठता है कि आनंद की ओर चलें। आत्मा अनंत आनंद का रूप है इसलिए भावातीत ध्यान की युक्ति से मन सरलता से अपने आप में बैठकर आत्म स्वरूप हो जाता है और जहाँ आत्म स्वरूप हुआ, शुद्ध चेतना आई, भावातीत चेतना आई, तुरीय चेतना आई, तो जितना शास्त्रों में तुरीय चेतना के संबंध में विस्तार से उसका महत्व गाया है वो सारा का सारा महत्व अपने जीवन में उतर आता है। यह भारतीय कर्म करने का विधान है। इसका रहस्य यह है कि जब मन शांत होता है तो चेतना पूर्ण रूप से अव्यक्त होती है। अव्यक्त चेतना में रहकर जो कार्य करेंगे, जो ऋग्वेद ने कहा कि उस अव्यक्त चेतना के क्षेत्र में सारे देवी-देवताओं का निवास है तो उसको ऐसा समझना चाहिए जैसे फूल में लाल है, हरा है, इधर पत्ती है, डंडी है। इसकी सारी सत्ताएँ लाल की सत्ता और यह पत्ता और यह फल-फूल-डाली यह सब कैसे उत्पन्न होती है? यह उत्पन्न होती है, रस के क्षेत्र में कुछ कार्य हो रहा है और वो कार्य पत्ते के रूप में प्रकट हो रहा है, पंखुड़ी के रूप में प्रकट हो रहा है, लाल रंग के रूप में प्रकट हो रहा है, हरे रंग के रूप में प्रकट हो रहा है। लेकिन कार्य कहाँ हो रहा है? कार्य हो रहा है, बिना लाल रंग के, बिना हरे रंग के रस में, वो रस जहाँ जो निर्गुण है, निराकार है, कोई आकार नहीं, पत्ते का आकार नहीं, कोई उसका रंग नहीं। उस रंगरूप रहित रस के क्षेत्र में कुछ क्रिया हो रही है वो क्रिया सर्वसमर्थ है। इसलिए कि वो क्रिया हरा पत्ता भी बना सकती है। उस क्रिया में कुछ परिवर्तन, कुछ ऐसा हुआ, विशिष्टता आई, तो वो क्रिया लाल पंखुड़ी बनाने लगी, वो क्रिया सुगंधी बनाने लगी, वो क्रिया डंठल बनाने लगी। जो कुछ भी व्यक्त रूप से प्रकट हो रहा है वो अव्यक्त क्षेत्र की क्रिया का परिणाम है। सारे विश्व ब्रह्मांड में जितना कर्म हो रहा है, जितनी क्रियाएँ हो रही हैं, सृष्टि की व्यापक क्रियाएँ, सारी क्रियाएँ, वो अव्यक्त क्षेत्र में जो दैवीय सत्ता है उसमें क्रिया होने से, दैवीय सत्ता क्रियावान होने से, अव्यक्त क्षेत्र में दैवीय सत्ता क्रियावान होने से सारे विश्व ब्रह्मांड की सारी क्रियाएँ चल रही हैं। समस्त विश्व ब्रह्मांड में जो कर्म चल रहे हैं उन सारे कर्मों का बीज रूप से आधार है, वो अव्यक्त नित्य सनातन अखंड शाश्वत सत्ता और वो सत्ता आत्मसत्ता है।
जब मन अपनी तरंगों में होता हुआ सूक्ष्मता में जाकर सूक्ष्म रूप से, तरंग रहित होता है, तो मन वो अव्यक्त निर्गुण-निराकार सत्ता स्वरूप होता है, आत्मस्वरूप होता है और उस चेतना में हल्का सा स्पंदन भी सारे विश्व ब्रह्मांड के सारे कर्मों का बीज रूप होता है। कर्मों का यह जल रूप, जैसे जल में जितनी क्रिया हो रही है, उसी क्रिया के द्वारा ये सारे पत्ते, फल, डाली, जैसे रस में क्रिया हो रही है। अव्यक्त क्षेत्र में क्रिया हो रही है, वही क्रिया सारे व्यक्त क्षेत्र के कर्मों का आधार है।