भोपाल [ महामीडिया] एक युवक की रहस्यवाद में रुचि थी। उसे एक संत मिले। सब कहते थे कि वह अनेक रहस्य जानते हैं पर, उनसे कुछ भी जानना बहुत कठिन था। युवक ने सोचा कि वह संत को प्रसन्न करेगा। उनकी बहुत सेवा करेगा। वह वृद्ध संत के पास रहने लगा। संत ने कहा, ‘तुम अपना समय नष्ट कर रहे हो। मेरे पास कुछ नहीं है। मैं बोलता भी कम हूँ, लोग सोचते हैं कि मैं कोई राज छुपा रहा हूँ।’ वह आदमी नहीं माना। वह बोला ‘मैं यहीं रहूँगा। आपको मुझे वह रहस्य देना होगा, जो सभी रहस्यों के द्वार खोलता है।’ संत के लिए वह आदमी बोझ बनता जा रहा था। संत को उसके रहने और खाने की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी। एक दिन तंग आकर संत ने युवक से कहा, ‘सुनो, यह बहुत सरल रहस्य है।’ फिर संत ने एक मंत्र बोला। युवक पहले से मंत्र को जानता था। युवक ने कहा, ‘मूर्ख मत बनाओ। इसे सब जानते हैं। यह रहस्य नहीं है।’ उन्होंने कहा, ‘मंत्र हर कोई जानता है, पर इसे खोलने की कुंजी नहीं।’ युवक ने कहा, ‘कुंजी?’ संत ने कहा, ‘तुम्हें इस मंत्र को पांच मिनट दोहराना है। बस, तब एक भी बंदर का विचार मन में नहीं लाना।‘ युवक ने कहा, ‘यह तो सरल है। मैंने जीवन में कभी भी बंदरों के बारे में नहीं सोचा। तो अब क्यों सोचूंगा?’ वह जाप के लिए जाने लगा। आश्चर्य की बात यह थी कि वह जहाँ जा रहा था, वहाँ बंदरों का विचार साथ चल रहा था। बंदर मस्तिष्क में आ गए थे। उसे हर स्थान पर बंदर अपनी ओर आते दिख रहे थे। भीड़ बढ़ रही थी। अभी जाप प्रारंभ भी नहीं किया था। उसने पूरी रात प्रयास किया कि। वह थक गया। वह संत के पास गया और कहा, ‘आप चाबी ले लो। मैं पागल होता जा रहा हूँ।’ संत ने कहा, ‘इसलिए मैं कुछ नहीं बताता। चुप रहता हूँ।’ आदमी ने कहा, ‘मुझे अब आपसे कुछ नहीं सुनना। आप बस चाबी ले लीजिए।’ संत ने कहा, ‘यदि चाबी देना चाहते हो तो कभी मंत्र भी नहीं दोहराना। दोहराओगे तो बंदर आएंगे।’ आदमी चला गया। अब कोई बंदर नहीं नहीं दिखा। पर, जब वो मंत्र बोलने की प्रयास करता तो बंदर आ जाते। उसे यह समझना था कि वह किसी विचार को दबाए नहीं। बंदर आएं, तो आने दे। उन्हें देखकर मुस्कराए और आगे जाने दे। जितना वह किसी विचार को दबाएगा, वह उतनी ही अधिक ऊर्जा से वापसी करेगा। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी सदैव कहा करते थे कि मन बहुत चंचल है उसे किसी भी अन्य दबाव से शांत नहीं किया जा सकता, अत: विचारों को आने दीजिये भावातीत ध्यान योग के नियमित अभ्यास से धीरे-धीरे मन के विचार कम होते जायेंगे। क्योंकि विचारों और भावों की उथल-पुथल चलती रहती है। हम सभी कभी न कभी विचारों और भावों से घिरे होते हैं। यह आवश्यक भी है। और हमें भावों और विचारों को दूर भगाने का प्रयास भी नहीं करना हैं। उनकी आपूर्ति आपके नियमित प्रात: संध्या के अभ्यास के साथ घटती जावेगी। ध्यान करने के लिए स्वच्छ जगह पर स्वच्छ स्थान पर बैठकर साधक अपनी आँखें बंद करके अपने मन को दूसरे सभी संकल्प-विकल्पों से हटाकर शांत कर देता है और ईश्वर, गुरु, मूर्ति, आत्मा, निराकार परब्रह्म या किसी की भी धारणा करके उसमें अपने मन को स्थिर करके उसमें ही लीन हो जाता है। कुशल साधक अपने मन को स्थिर करके लीन होता है उसे योग की भाषा में निराकार ध्यान कहा जाता है। गीता के अध्याय-6 में श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान की पद्धति का वर्णन किया गया है। ध्यान करने के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठा जा सकता है। शांत और चित्त को प्रसन्न करने वाला स्थल ध्यान के लिए अनुकूल है। प्रात:काल या संध्या का समय भी ध्यान के लिए अनुकूल है। ध्यान के साथ मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम का भी सहारा लिया जा सकता है। ध्यान के अभ्यास के प्रारंभ में मन की अस्थिरता और एक ही स्थान पर एकांत में लंबे समय तक बैठने की अक्षमता जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास के बाद मन को स्थिर किया जा सकता है और एक ही आसन में बैठने के अभ्यास से इस समस्या का समाधान हो जाता है। सदाचार, सद्विचार, यम, नियम का पालन और सात्विक भोजन से भी ध्यान में सरलता प्राप्त होती है। ध्यान का अभ्यास आगे बढ़ने के साथ मन शांत हो जाता है जिसको योग की भाषा में चित्तशुद्धि कहा जाता है। ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता।
जय गुरुदेव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- ब्रह्मचारी गिरीश