भोपाल [ महामीडिया] प्रतिदिन का सूर्य एक नवीन ऊर्जा के साथ अवतरित होता है, हमें भी अपना प्रत्येक दिन एक नए संकल्प नई चेतना के साथ जीना आना चाहिए । भगवान ने जीवन का प्रत्येक क्षण हमें नवसृजन, अभिनव चिंतन के लिए दिया है। प्रत्येक दिन हर रूप में नया है ।उसे न पहले जिया गया है और न ही वह पूर्व-अनुभूत है। किंतु दुर्भाग्य से अधिकतर लोगों का अधिकांश जीवन पर निंदा, षड्यंत्र, चापलूसी करने और दूसरों के लिए खाई खोदने में निकल जाता है। किसी को फँसाने की धुन में वे अपना दुर्लभ समय नष्ट करते रहते हैं किंतु वे मूढ़ हैं! भूल जाते हैं कि उनके सारे कृत्य ईश्वर दृष्टिगत हैं और दूसरों के लिए खोदी गई खाई में उन्हें स्वयं गिरना है। जो अभिशप्त हैं उनसे अमृत की अपेक्षा कैसी । चेतना वैज्ञानिक विश्व-विख्यात परम पूज्य महर्षि महेशयोगी जी ने जीवन के प्रत्येक दिन के प्रत्येक क्षण को उपयुक्त दिशा में उठने वाले कदम की शुभ घड़ी कहा है।आत्म-चेतना का यह कदम प्रत्येक मनुष्य को प्रतिदिन एक नए उत्साह के साथ उठाना चाहिए। वह ऐसे कदमों को चेतना का स्तर ऊँचा उठाने वाला मानते हैं और सभी से यह अपेक्षा करते हैं कि मानव-कल्याण के लिए इस प्रकार के प्रयास किए जाने चाहिए।यह तभी संभव है जब हम अपने जीवन के प्रत्येक दिन को प्रभु का उपहार मानकर उसे अविस्मरणीय बनाने का न मात्र हित चिंतन करें साथ ही व्यावहारिक रूप में अपने आचरण में ढालने की चेष्टा करें ।हमारी बड़ी दुर्बलता यही है कि हम दूसरों को जितनी सरलता से देखते हैं उतनी सरलता से स्वयं को नहीं जान पाते जबकि स्वयं पर शासन करना सबसे बड़ा आत्मज्ञान है।मनुष्य एक मननशील प्राणी है इसमें गंभीचिंतन और विचार करने की क्षमता होती है, किंतु सच्चाई यही है कि मनुष्य का जीवन प्राय ऊहापोह और सत्य-असत्य की टकराहटों के बीच बीतता है ।क्या करना है और क्या नहीं करना यह निर्णय सरल नहीं होता ।इसी कारण उसके जीवन में अनेक दोहरे मानदंड बन जाते हैं। मगर उसके जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं जो या तो उसेकमजोर करती हैं या उद्धृत बना देती हैं। इच्छापूर्ति को अपने अधिकार का विषय समझ बैठता है। भारत का वैदिक साहित्य प्राय वर्षों तक आत्मज्ञान और आत्मविस्तार की कथाओं का इतिहास है। स्वर्ग भी मनुष्य की उच्चतम कामनाओं का उदाहरण है। संसार के प्राय सभी धर्मों ने अपने-अपने ढंग से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के मार्र्ग निकाले हैं इहलोक के साथ-साथ परलोक में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। धरती पर साम्राज्यवाद का विस्तार भी इसी का उदाहरण है।प्राय दूसरों पर शासन करने की इच्छा खाद-पानी के समान हमारी साम्राज्यवादीधारणाओं को प्रबल करती है।महर्षि कहते थे कि दूसरों पर शासन करने के बदले स्वयं पर शासन करना सबसे बड़ा आत्मज्ञान है। यही आत्म-प्रज्ञा आत्मानुशासन है। हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि हम दूसरों को जितनी सरलता से देखते और परखते हैं उतनी सरलता से स्वयं को नहीं जान पाते। हम प्राय अपने बारे में बहुत कम सोचते हैं जबकि भारतीय चिंतन परंपरा में यह बात ठोक-बजाकर कही गई है कि निपुण व्यक्ति भी अपने कंधे पर नहीं चढ़ सकता। इसलिए ज्ञान की तीसरी आँख अधिकार के साथ कर्त्तव्य का भी ध्यान दिलाती है। कर्त्तव्य-बोध से रहित अधिकार एक शोषक की दुर्विनीत आकांक्षा भर बनकर रह जाता है।मन की नमनीयता ही उचित अधिकार का बोध करा सकती है और हमारी अन्तर्दृष्टि को तेज करने एक सरल उपाय है। महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित भावातीत ध्यान-योग का नियमित प्रात एवं संध्या 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको स्वयं को खोजने व समझने के आपके प्रयास में आपका सहखोजकर्त्ता व मार्गदर्शक भी सिद्ध होगा। शनै शनै आप स्वयं से ही आनंदित रहेंगे। आपका जीवन आनंदित रहेगा। "उपयोग व उपभोग’’के अंतर को समझने में आप सामर्थ्यवान बनेंगे। आपका जीवन आनन्द से भर जायेगा क्योंकि जीवन आनंद है।
जय गुरुदेव, जय महर्षि
ब्रह्मचारी गिरीश जी
- ब्रह्मचारी गिरीश