आप स्वयं श्रेष्ठ हैं

प्रतिदिन हम ऐसे अनेक लोगों से मिलते हैं जो अपने बचपन की कड़वी यादों और पीड़ा को लादे हुए होते हैं। बचपन के ये कड़वे अनुभव बड़े होने पर अवसाद और तनाव में परिवर्तन जाते हैं। वैसे, बड़े होने पर हम किस प्रकार के मनुष्य बनेंगे, यह बहुत सीमा तक हमारे बचपन पर निर्भर करता भी है। प्राय: जब बचपन में किसी बच्चे की भावनात्मक आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती या उसे प्यार नहीं मिलता, तो बड़ा होने पर वह एक रूखे और एकाकी व्यक्ति में परिवर्तित होने लगता है। उन्हें अनुभव होने लगता है, कि उसके जीवन में घटने वाली प्रत्येक बुरी घटना का उत्तदायी वह स्वयं है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो उसका बचपन भी बाकी बच्चों के समान आनंद और प्यार से भरा होता। हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि बड़ों की बात मानना अच्छे होने की निशानी है और हट करना गलत बात है किंतु हम भूलने लगते हैं कि हमारा अपना भी कोई अस्तित्व, पसंद-नापसंद है। फिर, हमारा बस एक उद्देश्य रह जाता है कि दूसरों को कैसे प्रसन्न रखा जाए और इस प्रयास में हम अपनी इच्छाओं को खोने लगते हैं। परिणाम, प्रसन्न रहने के स्थान पर हमारा अंतर्मन रिक्त होने लगता है। जब लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहती है, तो हम स्वयं से ही कटने लगते हैं। यह भूल जाते हैं कि दूसरों से पहले स्वयं की संतुष्टि आवश्यक है। जब कोई व्यक्ति अपने आप को पीछे रखकर दूसरों को प्रसन्न करने को प्राथमिकता देने लगता है, तो धीरे-धीरे उसका मन और व्यक्तित्व दो भागों में बंट जाते हैं। एक भाग वह जो दूसरों के सामने उनके कानों सुहाती बातें करता है और व्यक्तित्व का दूसरा वह भाग वह जो जानता है कि ऐसा करने पर उसे प्रसन्नता नहीं मिल रही पर दूसरों की नाराजगी के भय से वह स्वयं को कभी प्रकट नहीं कर पाता। इस स्थिति में फंसा हुआ व्यक्ति वास्तव में दुविधा का सामना कर रहा होता है, क्योंकि उसके अंतर्मन के अच्छे और बुरे में चल रहा द्वंद मानसिक शांति को भंग करने लगता है। परिणाम, अकेलापन, आत्मविश्वास की कमी और स्वयं को किसी योग्य न समझने जैसे भाव मन में घर करने लगते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या दूसरों की प्रसन्नता के लिये स्वयं को मारना आवश्यक है? क्या अपनी बात या अपने विचार दूसरों के सामने रखना विद्रोह कहलाता है? और यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर न में है तो ऐसा क्या किया जाए कि हम इस मनोस्थिति से बाहर निकल सकें? कभी न बोलने वाला व्यक्ति जब दृढ़ता से अपनी बात रखता है, तो जितनी कठिनाई सामने वाले के लिए यह पाच्य करना होता है, उतना कठिन उस व्यक्ति के लिए अपनी बात रखना भी होता है। असल में, वह नहीं जानता कि सदैव दूसरों की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के उसके व्यवहार को पसंद करने वाले लोग कहीं उसे विद्रोही तो समझने नहीं लगेंगे। पर यदि एक बार आपने अपनी बात दृढ़ता से रखने का विश्वास कर लिया तो सच मानिए, आपके मन को दृढ़ता तो मिलेगी ही, अपने अस्तित्व के होने का जो अनुभव होगा, वह अतुलनीय होगा। जीवन की कड़वी सच्चाई है कि आप सबको संतुष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है कि आपकी कोई विशेषता किसी को अवगुण लगती हो या आपका कोई अवगुण (आदत) किसी को बहुत भाता हो। जैसे, यदि कोई अधिक लंबा है तो भी उस पर तंज कसा जाता है, और कोई नाटे कद का है, तो लोग उसका भी हास्य बनाते हैं पर फिर भी प्राय: हम दूसरों के प्रति अपनी राय से बहुत अधिक प्रभावित हो जाते हैं। इन बातों से परेशान होने से श्रेष्ठ यह है कि जैसे हैं, वैसे ही रहें। किसी अस्थाई प्र्रसन्नता के लिए स्वयं को न बदलें। ‘दुसरों की प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है’, यह सुनने में अच्छा लगता है, पर इस बात को अपने मूल जीवन में उतार लेने का विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऐसा करने से आपकी मानसिक शांति तो भंग होती ही है अन्य लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ती जाती हैं। इसलिए स्वयं को महत्वपूर्ण समझने से न हिचकें और न ही कभी अपनी आवश्यकताओं की उपेक्षा करें। जब आप स्वयं को आवश्यक समझेंगे, तभी अपना ध्यान रख पाएंगे और प्रसन्न भी रह पाएंगे। लम्बे समय से परेशान व्यक्ति धीरे-धीरे स्वयं पर से ही विश्वास खोने लगता है, क्योंकि कभी-कभी संकट की घड़ी इतनी लंबी लगने लगती है कि व्यक्ति अपना साहस खोने लगता है। दूसरों की राय पर चलना उसकी मजबूरी बन जाती है किंतु स्वयं पर विश्वास मजबूत हो, तो स्थिति को संभाला जा सकता है। याद रखिए, हमारा स्वयं पर विश्वास ही हमारी वास्तविकता का निर्माण करता है। हमारा आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति हमारे सपनों को मूर्त रूप देने का कार्य करती है। किसी भी स्थिति में स्वयं पर से विश्वास को डिगने न दें। हमें स्वयं के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। हम अपने जीवन का बड़ा भाग, हम जो होना चाहते हैं या फिर हमसे, हमारे अपने या दूसरे लोग जो होने की आशा करते हैं, हम यह जीवन उसकी चिंता में बिता देते हैं। हमें स्वयं को सिद्ध करने या अपने साथ वालों को पीछे छोड़ने की होड़ में पड़ने की आवश्कता ही नहीं है। हम बस अपना सर्वश्रेष्ठ कर सकें, यही प्रयास बहुत है। धीरे-धीरे हम जान जाते हैं कि हर कोई अपने ढंग से श्रेष्ठ है। आपको, अपने सोचने, समझने एवं परिस्थितियों को भापने कि गति को और गति देनी होगी। तभी हमारी मानसिक क्षमता को तीव्र एवं तीक्ष्ण किया जा सकता है। इसका बहुत सरल एवं सुरक्षित उपाय है भावातीत ध्यान योग का नियमित प्रात: एवं संध्या में 15 से 20 मिनट का अभ्यास जो आपके जीवन लक्ष्य तक पहुंचने में आपकी सहायता करेगा।

- - ब्रह्मचारी गिरीश

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