चेतना की प्रेरणा: भावातीत ध्यान [ संपादकीय ]

भोपाल [ महामीडिया] भावातीत ध्यान एक तकनीक है, विद्या है, योगक्रिया है। आत्मानुशासन की एक युक्ति है जिसका उद्देश्य है एकाग्रता, तनावहीनता, मानसिक स्थिरता व संतुलन, धैर्य और सहनशक्ति प्राप्त करना। ध्यान अपने अंतर में ही रमण करने का, अपनी अंतश्चेतना को विकसित करने का, बाहरी विकारों से मुक्त होकर मन की निर्मलता प्राप्त करने का एक उपक्रम है। ध्यान क्रिया से इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति सचमुच सुगम होती है। इस दृष्टि से इस विद्या की उपादेयता स्वयंसिद्ध है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
हमारे ऋषि मुनियों ने भारतीय वैदिक वांङ्गमय में अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है जिससे हम जीवन के महत्व व उद्देश्य समझकर अपने जीवन को आनन्दित कर सकते है। कलियुग में आनन्द की कल्पना कार्यसिद्धि तक ही सीमित है किंतु आनन्द तो असीमित है। हमारे मन की प्रवृत्ति के अनुसार ही हम आनन्द का अनुभव कर पाते हैं जैसे- मिष्ठान प्रिय मनुष्य मीठा खाकर आनन्दित हो उठता है। संगीत ज्ञाता मधुर संगीत सुनकर आनन्दित होता है। प्रकृति प्रेमी प्राकृतिक सौन्दर्य को देख कर आनन्दित होता है किंतु यह सब क्षणिक आनन्द है क्योंकि सभी का आनंद परिस्थितियों पर निर्भर है। सच्चा आनन्दित व्यक्ति वह है जिसके मन की प्रकृति ही आनन्दित रहती है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बहुत भूखा रहने वाले का, न बहुत सोने वाले का और न बहुत जागने वाले का सिद्ध होता है। वास्तव में आनंद और शांति देने वाला यह योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, जीवन-कर्म में उचित प्रकार से रत रहने वाले तथा यथायोग्य (आवश्यकतानुसार) सोने-जागने वालों को ही सिद्ध (सफल) होता है। वर्तमान समय में जीवन के लक्ष्य के चयन में ही सम्पूर्ण जीवन समाप्त हो जाता है और अन्त में समझ आता है कि''न माया मिली न राम।'' हमारे ऋषि मुनियों ने भारतीय वैदिक वांङ्गमय में अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया है जिससे हम जीवन के महत्व व उद्देश्य समझकर अपने जीवन को आनन्दित कर सकते है। कलियुग में आनन्द की कल्पना कार्यसिद्धि तक ही सीमित है किंतु आनन्द तो असीमित है। हमारे मन की प्रवृत्ति के अनुसार ही हम आनन्द का अनुभव कर पाते हैं जैसे- मिष्ठान प्रिय मनुष्य मीठा खाकर आनन्दित हो उठता है। संगीत ज्ञाता मधुर संगीत सुनकर आनन्दित होता है। प्रकृति प्रेमी प्राकृतिक सौन्दर्य को देख कर आनन्दित होता है किंतु यह सब क्षणिक आनन्द है क्योंकि सभी का आनंद परिस्थितियों पर निर्भर है। सच्चा आनन्दित व्यक्ति वह है जिसके मन की प्रकृति ही आनन्दित रहती है। अवसाद का स्थान न हो और ज्ञानी पुरुष कभी भी अवसाद ग्रस्त नहीं होते जैसे भगवान आदि शंकराचार्य जी की जब विद्वान मंडन मिश्र जी से परिचर्चा हुई तो मंडन मिश्र पराजित हुए क्योंकि भगवान आदि शंकराचार्य जी तो ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे अत: उनका मन सदैव आनन्दित रहता था। समस्त सृष्टि का आधार विशुद्ध चेतना है जिसके स्पन्दन ही समस्त सृष्टि एवं आकाशीय पिण्डों के रूप में प्रकट हुए हैं। मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक होती है। जब तक 'ब्रह्म' कि अनुभूति नहीं हो पाती, तब तक इंद्रियाँ अनुभव करती रहती हैं। मगर जब अनुभव करने वाला अपने अस्तित्व को भूल जाता है, तब चेतना की उस अवस्था में ब्रह्म की अनुभूति होती है। चेतना की इस "भावातीत अवस्था" की प्राप्ति शब्दों (मंत्रों) की सहजावस्था में मानसिक आवृत्ति से ही की जाती है। इसमें चेतना के कई स्तरों की चर्चा की जाती है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के बाद की चेतना की अवस्था भावातीत चेतना और इसके आगे पाँचवीं अवस्था तुरीयातीत चेतना की है। इस प्रकार साधना की इस सामान्य प्रक्रिया के द्वारा ब्रह्मांडी चेतना तक पहुँचा जा सकता है। भावातीत ध्यान करने वाले साधकों पर विदेशों में अनेक वैज्ञानिक प्रयोग भी किए जाते रहे हैं। परमपूज्य महेश योगी जी सदैव कहते थे कि जीवन आनन्द है, क्योंकि यदि हमारे मन की प्रवृत्ति आनन्दित हो जावे तब हम विषम परिस्थितियों में डरेंगे नहीं, घबरायेंगे नहीं और हमारा जीवन भी आनन्दित हो जाएगा। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने मन की प्रवृत्ति को आनन्दमय करने की युक्ति हम सभी को दी है "भावातीत-ध्यान-योग" के रूप में, अत: प्रतिदिन 15 से 20 मिनट प्रात: व संध्या नियमित भावातीत ध्यान योग का अभ्यास आपके मन को आनन्द से भर देगा और हमारे चारों ओर आनन्द की उपस्थिति, वैश्विक अशान्ति को मिटा कर पृथ्वी पर स्वर्ग के निर्माण की परिकल्पना को साकार कर देगी।

।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।

[ ब्रह्मचारी गिरीश जी ]

- ब्रह्मचारी गिरीश

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