संतुष्टि का भाव

भोपाल (महामीडिया) मानव सबसे बुद्धिमान प्राणी भले हो, उसका स्वभाव है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। जितना प्राप्त होता है, उससे अधिक की इच्छा उसे निराश करती रहती है। लियो टॉलस्टॉय ने कहा भी है कि अगर आप पूर्णता ढूंढ़ रहे हैं, तो कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकते। संतुष्टि तो मन की अनंत गहराई में छिपी वह शक्ति है, जिसको भौतिक जगत में खोजा नहीं जा सकता। इसको अपने अंदर खोजना पड़ता है। बिल्कुल उसी प्रकार, जैसे मृग कस्तूरी की सुगंध के लिए भटकता रहता है, पर वह कभी नहीं प्राप्त होती, क्योंकि वह तो सुगंध तो उसके अंदर होती है। भौतिक जगत हमें अपनी ओर आकर्षित करता है, जिसके कारण हमारी इच्छाएं सदैव बढ़ती रहती हैं। एक इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि दूसरी जन्म ले लेती है। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। इसके फलस्वरूप मानव जीवन भर दु:खी ही रहता है। हमारे जीवन में कितने भी भौतिक सुख क्यों न हों, असंतोष सदैव बना रहता है। यह दु:ख का सबसे प्रमुख कारण है। इसी असंतोष को मिटाने के लिए हमें संतुष्टि की आवश्यकता होती है। इस सत्य को स्वीकारना सरल नहीं है कि हम अपने जीवन में कभी पूर्ण नहीं हो सकते, क्योंकि इच्छाओें का अंत नहीं है। इसलिए भारतीय मनीषा की दृष्टि में बुद्धिमान वही है, जो उन चीजों के लिए शोक नहीं करता जो उसके पास नहीं हैं, बल्कि उन चीजों के लिए प्रसन्न रहता है, जो उसके पास हैं। पहला तो यह कि अधिक से अधिक संचय करते रहें, जो कभी संभव नहीं हो सकता, क्योंकि कुछ न कुछ अधिक किसी न किसी के पास रहेगा ही, इसलिए दूसरा मार्ग अपनाना चाहिए, जिसमें सदैव हमें कम से कम की आवश्यकता पड़े। जीवन जैसा भी है या जो कुछ हमें मिला है, उससे हमें अधिक से अधिक प्रसन्नता एकत्रित करनी चाहिए और अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करना चाहिए। हम स्वयं को जब यह समझाने में सफल हो जाएं कि हमारी समस्त इच्छाएं पूरी हो चुकी हैं और अब हम बिना किसी व्यापक परिवर्तन के अपना जीवन आनंदपूर्वक बिताने के लिए तैयार हैं, सम्भवत: तब हम तनावों को अपने से दूर झटक पाएंगे। हमें अपने जीवन में मूलभूत आवश्यकताओं, इच्छाओं और परिवर्तनों से संतुष्टि को नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि जब तक जीवन है, तब तक आवश्यकतायें, इच्छायें जो हैं, उनके साथ प्रसन्न रहने के मर्म को समझना बहुत आवश्यक है। उसके लिए प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होना, संतोषी होना है। यह कहना एवं लिखना सरल है किंतु आत्मसात करना सभी को कठिन लगता है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी द्वारा प्रतिपादित ''भावातीत ध्यान योग'' का नियमित प्रात: एवं संध्या, 15 से 20 मिनट का अभ्यास आपको अपने लक्ष्य चयन एवं जीवन में उसकी उपयोगिता एवं महत्व के प्रति भी सजग करते हुए जीवन को आनंदित बनाने में आपका मार्गदर्शन करेगा। यह एक अनुभव है जो आप स्वयं भी अपने जीवन में भावातीत ध्यान के अभ्यास को अपनाकर 'जीवन आनंद है' वाक्य की सार्थकता का परिमार्जन कर सकते हैं।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।
 

- ब्रह्मचारी गिरीश

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