पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना 'श्राद्ध' है
भोपाल (महामीडिया) श्राद्ध कर्म भारतीय संस्कृति का वह पावन संस्कार है, जिसमें पूर्वजों का आवाह्न कर उन्हें एक बार पुन: जीवन में, हृदय में स्थान देकर संतुष्ट किया जाता है। श्राद्ध पूजा केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं है। यह अपने उन पूर्वजों को धन्यवाद देने का, उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का तरीका है, जिनके कारण हम आज अपना सुखी वर्तमान पा सके हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार जब हम पूर्ण श्रद्धा से अपने पूर्वजों को याद कर उनका सम्मान करते हैं, तो वे प्रसन्न् होकर हमें जीवन में समस्त सुख-समृद्धि पाने का आशीर्वाद देते हैं। उनके आशीर्वाद से हमारे जीवन के दुख दूर होते हैं और हर तरह के सुखों की प्राप्ति होती है।
श्राद्ध का अर्थ है, अपने पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना। पुराणों के अनुसार, मृत्यु के बाद भी जीव की पवित्र आत्माएं किसी न किसी रूप में श्राद्ध पक्ष में अपने परिजनों को आशीर्वाद देने के लिए धरती पर आती हैं। पितरों के परिजन उनका तर्पण कर उन्हें तृप्त करते हैं। इस बार 2 सितंबर से श्राद्ध पक्ष शुरू हो रहे हैं।
गया जाकर पितरों का श्राद्ध करने से सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। माना जाता है कि यहां भगवान विष्णु पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है। पिंडदान को मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग माना जाता है। मान्यता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग में अधर्मियों की जनसंख्या बढ़ने लगी। इससे बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। यज्ञ के बाद जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही जगह आगे चलकर गया बनी। गयासुर ने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी का तर्पण करने की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं।