पितृपक्ष में 'कुशा' के बिना तर्पण अधूरा 

पितृपक्ष में 'कुशा' के बिना तर्पण अधूरा 

भोपाल (महामीडिया) हिन्दू धर्म में कुश घास को सबसे शुद्ध और पवित्र माना गया है। श्राद्ध कर्म में इसका होना बहुत ही आवश्यक है। इसे भगवान विष्णु का अहम हिस्सा माना गया है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसकी उत्पत्ति भगवान विष्णु के रोम से हुई मानी जाती है। माना जाता है कि इसे धारण करके तर्पण करने से मृतक की आत्मा को बैंकुंड की प्राप्ति होती है। इसे कुशा, दर्भ या डाभ भी कहा जाता है। 
कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है। जिसे पवित्री कहा जाता है। ग्रंथों में बताया गया है इसके उपयोग से मानसिक और शारीरिक पवित्रता हो जाती है। पूजा-पाठ के लिए जगह पवित्र करने के लिए कुश से जल छिड़का जाता है। कुशा का उपयोग ग्रहण के समय भी किया जाता है। ग्रहण से पहले खाने-पीने की चीजों में कुशा डाली जाती है। ग्रहण काल के दौरान खाना खराब न हो और पवित्र बना रहे, इसलिए ऐसा किया जाता है। 
अथर्ववेद में कुश घास के लिए कहा गया है कि इसके उपयोग से गुस्से पर कंट्रोल रहता है। इसे अशुभ निवारक औषधि भी कहा गया है। चाणक्य के ग्रंथों से पता चलता है कि कुश का तेल निकाला जाता था और उसका उपयोग दवाई के तौर पर किया जाता था। मत्स्य पुराण का कहना है कि कुश घास भगवान विष्णु के शरीर से बनी होने के कारण पवित्र मानी गई है।
मत्स्य पुराण की कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर के पृथ्वी को स्थापित किया। उसके बाद अपने शरीर पर लगे पानी को झाड़ा तब उनके शरीर से बाल पृथ्वी पर गिरे और कुशा के रूप में बदल गए। इसके बाद कुशा को पवित्र माना जाता है।
ऋग्वेद में बताया गया है कि अनुष्ठान और पूजा-पाठ के दौरान कुश के आसन का इस्तेमाल होता था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध ने कुश के आसान पर बैठकर तप किया और ज्ञान प्राप्त किया। श्री कृष्ण ने कुश के आसन को ध्यान के लिए आदर्श माना है।
 

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