सनातन समाज में जप और तप के चार मास

सनातन समाज में जप और तप के चार मास

भोपाल  [ महामीडिया] भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही संयम, तप और जीव मात्र के प्रति गहरी करुणा, भावना पर आधारित रही है। संन्यासियों को आदर्श मानकर जहां उनके लिए कठोर नियम बनाए गए हैं, वहीं गृहस्थों को अनेक नियमों में छूट दी गई। इसी कड़ी में ऋषि-मुनियों के लिए वर्षा ऋतु के चार मास, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक में स्थान-स्थान पर भ्रमण ना करते हुए एक स्थान पर ही स्थिर रहने का विधान किया गया। भारत में उत्पन्न हुए हिन्द तथा बौद्ध धर्म में आज भी ये परम्परा अविच्छिन्न रूप में प्रचलित है।‘अत्रि स्मृति’ में लिखा है कि वर्षाकाल में भूमि पर सर्वत्र ही छोटे-छोटे कीट पतंगे, मच्छर, मक्खियों की भरमार हो जाती है, अत: संन्यासियों को एक ही जगह रुकना चाहिए। मत्स्य पुराण के अनुसार भी साधुजनों के लिए विचरण के मास तो आठ ही हैं। वर्षा ऋतु के चार मास में तो जीव हिंसा के निवारणार्थ एक स्थान पर प्रवास ही शास्त्र सम्मत है। बौद्ध धर्म में भी कमोबेश इसी व्यवस्था का विधान है।

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