गुरुदेव की कृपा का फल

गुरुदेव की कृपा का फल

भोपाल (महामीडिया) किसी को भी कुछ भी चाहिये जीवन में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष अपने भीतर संहिता तत्व से ले लें। संहिता तत्व है, कैसे समझ में आता है अक्षर तत्व, स्वयं वेद रूप में प्रकट होकर अक्षर तत्व ऋचो अक्षरे, अक् जो अनेक बार कह चुके हैं अनन्त का अपनी बिन्दु रूपता में जो क्षरण है इसे ‘अ’ अनन्त का ‘क’ कण ‘क’ से कनाद की याद आती है, कण अनन्त का ‘अ’ कण का ‘अ’ से पूरा मुँह खुलता है ‘क’ कहने में कण्ठावरोध होता है। अक्, जब ऋग्वेद पहले सूक्त का पाठ कहते हैं, ऋग्वेदी जब कहते हैं, ‘अक्’ ऊपर जोर पड़ता है और जैसे अक् कहा, पूरा मुँह खुला ‘क’ कहा पूरा का पूरा मुँह बन्द हुआ। इसमें सारे शरीर में व्यापक चेतना में इतनी एक उथल-पुथल होती है, वो चेतना, अनन्त चेतना जो कण में क्षरित होती हे, वो क्षरित में अनन्त क्रिया शक्ति उत्पन्न होती है। अनन्त क्रिया शक्ति और उसी से वेद की सत्ता सत्तावान होती है। वेद की सत्ता अपने ही प्रथम अक्षर ‘अक्’ से प्रारम्भ होकर सारी वेद राशि को आनुपूर्वीय क्रम से विस्तारित करके सारे जगत की सृष्टि आनुपूर्वीय क्रम से करती है। प्रथम सूक्त को समझ लेने से सारे विश्व का विज्ञान सामने खड़ा हो जायेगा, इसलिये कहते हैं कि वेद विज्ञान का विद्यार्थी हँसते खेलते सर्वसमर्थ चेतनावान हो जायेगा। जो सरलता से बोलते हैं, वेद विज्ञान के अथाह ज्ञान को प्राप्त करने के लिये ऋग्वेद का प्रथम सूक्त और ऋग्वेद के प्रथम ऋचा का ज्ञान करने के लिये ये 24 अक्षरों की पहली ऋचा है, वो पहला अक्षर ‘अक्’ वहां ज्ञान होगा। चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति जिस स्वर से हुई ‘अ’ चेतना की अपने शरीर की चेतना, अध्यात्म सत्ता और जिसमें अधिदैव और अधिभूत तीनों मिश्रित हैं वो संहिता तत्व, जो अपनी चेतना है और अपने शरीर के अंग प्रत्यंग में जो व्यापक है, उसका वाणी में प्रकाशक प्रथम स्वर ‘अ’ जब व्यंजित हुआ, अपने कण रूपता में क्षरित हुआ, वो सृष्टि की अनंतता का अपनी कणरूपता में जो बोध है, शुद्ध ज्ञान की सत्ता है, वहीं उस शुद्ध ज्ञान की सता में अनन्त क्रिया की सत्ता मिल जाती है केवल अक्, अक् कहने से किंतु उस अक् के आगे अग्रिमीले की जो परम्परा है, वो जो प्रवाह है, आनुपूर्वी है, उस आनुपूर्वी को सामने रखके, उसको समझता हैं, जिसके समझने में अधिक देर नहीं लगती, एक दिन में, दो दिन में अनेक बार वो समझ में आ जाता है।
सारा ऋग्वेद और उससे सत्तावान साम, यर्जु, अथर्व और फिर उससे सत्तावान उपवेद और वेद की संहिता के 6 अंग-प्रत्यंग और उसका सारा का सारा इतिहास, पुराण और स्मृति, ये सारे तत्व आनुपूर्वीय क्रम से समझ लेने से कहीं ऋषित्व प्रधान रूप से, कहीं देवत्व प्रधान रूप से, कहीं छन्दत्व प्रधान रूप से जो अभिव्यक्त हुआ है, अव्यक्त में वेद की सत्ता सृष्टि के अव्यक्त मूल में जागृत होने के कारण वो परा की चेतना का व्यवहार रूप सहज स्वभाव है। वेद परा की सत्ता का तथ्य है इसीलिये वेद-विज्ञान के विद्यार्थी को भावातीत चेतना, परा की चेतना में अनुभूति कराने के लिए, परा की चेतना में व्यवहार करने की योग्यता कराने के लिए पतंजलि के सूत्रों का अभ्यास कराते हैं। परा की चेतना में जो सहज स्वभाविक क्रियाशक्ति है वो और उसी के द्वारा सारा संहिता का गठन है, सारे विश्व ब्रह्माण्ड का विज्ञान उसी गठन में नित्य निरंतर प्राप्त है। इस समय चेतना जागृत हुई यो जागार तम ऋच: कामयन्ते ऋचायें भर आती हैं, ऋचाओं का उभरना, चेतना में ऋचाओं का उभरना, मानवीय चेतना में सर्वसमर्थता का उभरता हाता है, जहां बुद्धि भी तृप्त है और सत्ता अपने वास्तविक ब्रह्म रूप में जागृत होती है। मात्र प्रथम सूक्त को समझकर सारे ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद की आनुपूर्वी और छहों अंगों की आनुपर्वी और उपांगों की आनुपूर्वी सारा का सारा समझ में आ जाता है। ये किसका प्रताप है, ये किसका प्रभाव है? हजारों-हजारों वर्षों से वेद का विज्ञान और वेद की संहिता का ज्ञान पूर्ण रूप से चरितार्थ हुआ। इसीलिए परा की चेतना में जो अनंत शक्ति है, मानवीय चेतना में उस अनंत शक्ति को जागृत कर लेने की जो सामर्थ शक्ति है, वो समर्थ्य हजारों वर्षों से छिपी रही प्रसुप्त रही, किसका प्रभाव है ये कि अब वो जागृत हो गई? कोई भी हो, ये भावातीत ध्यान की योगिक प्रक्रिया, भावातीत चेतना की योगिक सत्ता और उस सत्ता में स्पंदन देने के लिए पतंजलि का, ये संयम का विज्ञान, उसका प्रभाव, ये कैसे हजारों-हजारों वर्षों के बाद आज प्रत्येक के लिए सुगम हो गया है? अभी इन पिछले 25-30 वर्षोंका इतिहास देखेंगे तो मालूम पड़ेगा, इस बात की सत्यता का अनुभव होगा, जो भगवान ने कहा था प्रत्यवायो न विद्यते, स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ये कब नेहाभिक्रमनाशोऽति नाये अभिक्रम ना सोशते यदि अभिक्रम बन गया, यदि चेतना योगिक होना प्रारम्भ हो गई, चेतना का योगिक होना प्रारम्भ हो गया, यदि योग का प्रारम्भ हो गया तो फिर नेहाभिक्रमनाशोऽति इसका अभिक्रम भास नहीं होता इसीलिये कि मन अधिक-अधिक चाहता हुआ सर्वत्र भ्रमण कर रहा है। अधिक चाहिये, ज्ञान अधिक चाहिये, प्रत्येक वस्तु चाहिए। जैसे भाव की सूक्ष्मता में जाता है, अधिक से अधिक अनंत आनन्द के क्षेत्र के निकट जाता-जाता है, इसलिये आनन्द के खोजी मन को आनन्द सागर में जाने के लिए कोई भी वस्तु नहीं चाहिये, कुछ नहीं चाहिये, खाली उसका अभिक्रम प्रारम्भ होना चाहिए, एकदम उभर जाना चाहिए। वो सत्ता अपने आप खींच लेगी, पूर्णता अपने आप अपूर्ण को पूर्ण बना लेगी, पूर्णता अपने आप को पूर्ण बना लेगी इसीलिए ये भावातीत या तुरीय चेतनावान होना अत्यन्त सुगम है, सरल है। हजारों वर्षों से तुरीय चेतना या समाधि या भावातीत सत्ता अत्यन्त कठिन मानी गई और नाना प्रकार की युक्तियों के द्वारा कठिन मानी गयी। ये गुरुदेव का प्रताप था प्रत्यवायो न विद्यते, ये गुरुदेव का प्रताप था कि अभिक्रम सबके लिए सुगम हो गया। योग का अभिक्रम सबके लिए सुगम हो गया और जब लाखों-लाखों आदमी सारे विश्व में भावातीत होने लगे और फिर हजारों-हजारों आदमी जब भावातीत चेतना में स्पन्दन देने की योग्यता पाने लगे, स्पन्दन देने लगे, सिद्धियों का अनुभव होने लगा तब सारे विश्व चेतना में पवित्रता का संचार हुआ। जैसे-जैसे पवित्रता का संचार अधिक होता चला जा रहा है मानवीय चेतना में वेद विज्ञान तत्व अधिक गहराई से ऊपर आता चला जा रहा है। दोनों चीजे साथ-साथ होती हैं। वृक्ष में डालियों का बाहर बढ़ना, चारों ओर वृक्ष का फैलाव ये तभी सम्भव होता है जब जैसे डालियाँ फैल रही हैं वैसे-वैसे जड़ें भी नीचे जाती रहें, जड़ भी गहराई में जाती जायें, तभी ये सम्भव होगा जब ये डालियाँ चारों ओर जायें।
 

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