भावातीत ध्यान से 'सत्य' को आत्मसात करने की प्रेरणा मिलती है

भावातीत ध्यान से 'सत्य' को आत्मसात करने की प्रेरणा मिलती है

भोपाल (महामीडिया) भगवान को प्रसन्न करने के लिए श्रीमद्भागवत में तीस लक्षण बताये गये हें जिनके पालन से सर्वात्मा भगवान प्रसन्न होते है। वे तीस लक्षण इस प्रकार है- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, आत्म निरीक्षण, बाह्य इन्द्रियों का संयम, अन्तः इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, समदृष्टि, सेवा, सदाचार, सुचेष्टाओं का पालन, मौन, आत्मविचार, सामर्थ्यानुसार दान, प्राणियों में आत्मबुद्धि व इष्टदेव बुद्धि, भगवान के रूप-चरित्र गुणादि का भजन-कीर्तन, स्मरण, सेवा, यज्ञ, नमस्कार, दास्य सख्य और आत्म निवेदन। (श्रीमद्भागवत 7/11/8-12)
उपरोक्त लक्षणों को पढ़कर भगवान को पाना कठिन नहीं मानना चाहिये अपितु इन लक्षणों को पढ़कर इनके पालन करने का प्रयास करना चाहिये। यदि आपने इन तीस लक्षणों में से किसी एक मात्र को भी साध लिया तो आत्मा का परमात्मा से मिलन दूर नहीं है। किंतु बात मात्र समझने की है। यदि आज हम बात करें प्रथम लक्षण की तो यह है ‘सत्य’ और कहा जाता है कि सत्य तो कड़वा ही होता है। इसके आशय को जानना अतिआवश्यक है कि अन्ततः सत्य कड़वा क्यों होता है? और किसके लिये कड़वा होता है? बालने वाले के लिये या सुनने वाले के लिये, किंतु इन दोनों से अधिक आवश्यक तो यह है कि सत्य तो सत्य ही होता है। हां सत्य की कठोरता या कड़वेपन को कुछ कम तो किया जा सकता है और यही आज के जीवन में प्रदूषण का मुख्य कारण है- हम आपस में सत्य न तो बोलना चाहते हैं, न ही सुनना और न ही देखना और सत्य की कड़वाहट से बचने के लिये हम कड़वेपन के रस के प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। सही अर्थों में सत्य की कड़वाहट जीवन में अमृत प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करती है। हम, आप सभी इस सत्य की कड़वाहट ने आपको अपने जीवन में प्रण करने या कुछ कर दिखाने का दिव्यस्वप्न भी दिया होगा। हम अपने विद्यालयीन दिवसों में या कहें बाल्यावस्था से ही सत्यकी इस कड़वाहट से भली प्रकार से परिचित हो चुके हैं। कभी परीक्षा परिणाम को लेकर तो कभी खेल-कूद या मस्ती के कारण जब हमारा परीक्षा परिणाम बिगड़ा तो इमें इस सत्य की कड़वाहट लगी किंतु जब हमने इस कड़वाहट को भीतर से जाना तभी हमें ज्ञात हुआ कि यह परिणाम तो हमारे कम परिश्रम से है और इसे दूर करने का एक ही मार्ग है अधिक परिश्रम, और फिर हमने प्रण किया होगा कि चाहे कुछ भी हो जाये अथक परिश्रम करेंगे और परीक्षा परिणाम में अच्छे प्राप्तांक प्राप्त करके ही रहेंगे। इस पूरे प्रसंग में हमने श्रीमद्भागवत में भगवान को मनाने के जो तीस लक्षण हैं उन्हें पूरा किया होगा। किसी ने क्षणिक तो किसी ने अधिक और मिश्रित प्रयासो से परीक्षा के अच्छे परिणाम के रूप में भगवान के आशीर्वाद रूपी फल की प्राप्ति भी की होगी। वस्तुतः होता यह है कि हम प्रयासों से हार मान लेते हें। प्रयास कभी-भी अन्तिम नहीं होता, अंत तो परिणाम होता है कि और सुखद परिणाम तो अथक प्रयासों के पश्चात् ही प्राप्त होता है। यह हम सब को विदित है तो फिर चूक कहां हो जाती है? अतः आवश्यकता सत्य से दूर जाने की नहीं, सत्य की कड़वाहट से भी दूर जाने की नहीं, आवश्यकता तो सत्य को आत्मसात् करने की है। क्योंकि यही वह क्षण होता है जो हमें जीवन में लड़ना सिखाता है। और यह लड़ाई ही सत्य की कड़वाहट को जीवन की मीठी प्रेरणा बनाती है। मानव इसी सत्य के सामने आने से भयभीत होता है और भय हम सब उत्पन् करते हैं बाल्यावस्था से ही क्योंकि जब हम आप इस अवस्था में थे तो हमारे बड़े-बुजुर्गों ने हमें इस भय से परिचित करवाया था तो निश्चय ही अब तो संबंन्ध प्रगाण हो ही चुके हैं। किंतु नहीं, यही वह समय है जब हमें हमारे परिवार से, समाज से, देश, विश्व से व समस्त प्रकृति से इस भय को दूर करना होगा क्योंकि महर्षि कहते थे- “जीवन आनन्द है” यह अक्षरश: सत्य है। और जीवन के आनन्द को प्राप्त करने की राह है “भावातीत ध्यान।“ भावतीत ध्यान के नियमित अभ्यास से ही हम सत्य को आत्मसात करने की प्रेरणा ले पायेंगे। और सत्य की कड़वाहट को जीवन की मीठी मिठास में परिवर्तित करने की आपकी यात्रा का साथी नहीं, सारथी कहना अधिक उचित होगा, मात्र “भावातीत ध्यान” ही होगा। सत्य बोलने से मन की मलीनता दूर होती है जिससे मन रूपी दर्पण साफ हो जाता है और फिर उसमें भगवान के स्वरूप का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ने लगता है। भगवान के दर्शन के लिए असत्य से समझौता कदापि न करें। 


-ब्रह्मचारी गिरीश
 

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